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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 59-66
प्राचीन राजशास्त्रों की विषयानुक्रमणी सुन लेने के बाद युधिष्ठिर ने वर्ण और आश्रमधर्म सम्बन्धी जिज्ञासा की। चातुवर्ण्य और चातुराश्रम्य प्राचीन भारतीय समाज-व्यवस्था के मूल थे और राजधर्म के अनुसार उनका पालन राजा का मुख्य कर्तव्य था। उसे प्रजा-रूप में जो समाज प्राप्त होता था, उसमें चार वर्ण और चार आश्रम का संगठन सर्वोपरि था। अतः उनके विषय में राजा की जानकारी आवश्यक थी। भीष्म ने जो उत्तर दिया, उसकी बहुत-सी सामग्री ‘मनुस्मृति’ से मिलती-जुलती है। भीष्म ने उत्तर दिया, “महान धर्म को प्रणाम है। भगवान कृष्ण को प्रणाम है, ब्राह्मणों को प्रणाम है। मैं अब शाश्वत धर्मों का वर्णन करता हूँ। अक्रोध, सत्य, दान, क्षमा, निज स्त्रियों में सन्तानोत्पत्ति, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, अद्रोह, आर्जव, भृत्य-भरण ये ‘नव सार्ववर्णिका, क्रिया सब वर्णों के धर्म हैं। “केवल ब्राह्मण के धर्म हैं, दम, स्वाध्याय, अध्यापन, दान, यज्ञ, अपत्य-सन्तान। राजा क्षत्रिय को चाहिए कि वह दान दे, पर स्वयं न ले। यज्ञ करे पर स्वयं न करावे। स्वयं अध्ययन करे, पर अध्यापन-कार्य न करे। प्रजाओं का पालन करे। दस्यु-वध में नित्य उद्यम करे, रण में पराक्रम करे। जो सोम यज्ञों से यजन करते हैं, श्रुतवन्त होते हैं और जो युद्ध में विजयी होते हैं, वे क्षत्रियों में लोकजित् कहलाते हैं। दस्यु-नाश के अतिरिक्त क्षत्रिय का और कोई कर्म नहीं है। राजा को उचित है कि प्रजाओं को स्वधर्म में स्थापित करे। वैश्य का धर्म दान, अध्ययन, यज्ञ, शुचिभाव से धन का संचय और पिता के समान पशुपालन है। प्रजापति ने पशुओं को जन्म देकर उन्हें वैश्य को दे दिया। अतः उनकी रक्षा वैश्य का मुख्य धर्म है। तीन वर्णों की परिचर्या शूद्र का स्वाभाविक कर्म है। अन्य वर्णों को चाहिए कि वे शूद्रों का भरण-पोषण करें। वृद्ध और दुर्बल हो जाने पर शूद्र की वृत्ति का प्रबन्ध करना चाहिए। उसे आपत्ति के समय भी स्वामी का साथ नहीं छोड़ना चाहिए। प्रजापति ने सब वर्णों के लिए यज्ञ मुख्य कर्म बनाया है।[2] सब वर्णों के लिए श्रद्धा ही यज्ञ है।[3] यज्ञ करने की इच्छा रखने वाले वैखानस मुनियों ने यज्ञ के विषय में ये गाथा कही हैः सूर्योदय से पूर्व या पश्चात श्रद्धापूर्वक जितेन्द्रिय व्यक्ति को धर्मानुसार अग्नि में हवन करना चाहिए। इसमें श्रद्धा महत् कारण है। यज्ञों के अनेक रूप हैं, जो नाना कर्मों के फल हैं। ज्ञानपूर्वक निश्चय करके उन्हें जो जानता है, ऐसा श्रद्धायुक्त द्विजाति यज्ञ-कर्म के योग्य है। तीनों लोकों में यज्ञ के समान और कुछ नहीं है। अतः श्रद्धावान पुरुष को यजन करना चाहिए।”[4] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अवश्य भरणीयो हि वर्णानां शूद्र उच्यते, 60।31
- ↑ यज्ञो मनीषया तात सर्ववर्णेषु भारत, 60।43
- ↑ तत्सात्सर्वेषु वर्णेषु श्रद्धायज्ञो विधीयते
- ↑ अ. 60
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