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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
16. मौसल पर्व
अध्याय : 1-8
द्वारका में कृष्ण वंश के यादवों का विनाश हुआ उसकी कहानी मौसल पर्व में है। यादव क्षत्रिय बहुत उद्दाम और निरंकुश हो गये थे। एक बार द्वारका में कुछ ऋषि पहुँचे। उनसे ज्ञान चर्चा की बात तो दूर रही, यादव गुण्डों को एक मजाक सूझा। उन्होंने साम्ब स्त्री का वेश बनाया और उसके पेट से गूदड़ बाँधकर मुनियों से पूछा- यह गर्भवती स्त्री है, इसके क्या सन्तान होगा। मुनि उस बेहूदा ठठोली से बहुत उद्विग्न हुए। उन्होंने कह दिया- इसके पेट से एक लोहे का मूसल जन्म लेगा। वह बलराम और कृष्ण को छोड़कर सब यादवों का नाश करेगा। समय पर मूसल का जन्म हुआ। कृष्ण ने उसका संकेत समझ लिया। राजा उग्रसेन को इसकी सूचना मिली तब उसने लोहे के मूसल को पिसवा कर उसका चूर्ण समुद्र में डलवा दिया, पर आने वाली मौत को रोकने वाला कोई न था और नगर में डौंड़ी पीट दी गई कि आज से कोई मद्यपान न करे। इसी समय ऐसी घटना घटी कि एक कराल, विकट, मुण्डित पुरुष दर-दर घूमता हुआ दिखाई देने लगा। लोग उस पर बाण चलाते, किन्तु उसे बाण न लगते थे। लोगों में आतंक छा गया और भाँति-भाँति के अपशकुन होने लगे, तब कृष्ण ने अन्धकों और वृष्णियों को सलाह दी कि आप लोग तीर्थयात्रा कर आवें। अन्धक-वृष्णि और अनेक सैनिक समुद्र के किनारे पहुँचे। उनके लिए बहुत प्रकार की खाद्य सामग्री और मद्य-मांस भी तैयार किया गया। यादवों का यह जमावड़ा प्रभास तीर्थ में हुआ। मूसल का जो चूर्ण समुद्र में डाला गया था वह एरक घास के रूप में उग गया और उसी को उखाड़ कर उन्मत्त हुए अन्धक-वृष्णि और यादव आपस में लड़ मरे। कौन किसको मार रहा है, यह ज्ञान भी जाता रहा। इस प्रकार का भीषण काण्ड समाप्त हो गया, तो कृष्ण का सारथी दारुक अर्जुन को सूचना देने के लिए हस्तिनापुर आया। तब बलराम ने जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठकर आत्महत्या कर ली। उस समय कृष्ण भी लेटे हुए थे। जरा नामक एक व्याध ने उनके पैर को लोहे के बाण से बेध लिया, जिससे उनका प्राण-पखेरु उड़ गया। जब अर्जुन द्वारका पहुँचे, तो यादवी स्त्रियों की करुण दशा देखकर बहुत दुःखी हुए। वसुदेव ने अर्जुन को अन्तिम आदेश दिया और प्राण त्याग दिया। अर्जुन ने उनका तथा मौसल युद्ध में मरे हुए सभी यादवों का श्राद्ध किया। इसके बाद समुद्र की बढ़ती हुई लहरों ने द्वारका को डूबो दिया। यादवों के छोटे कुमारों का उन्होंने अभिषेक किया और कुछ स्त्रियों को भी उन्होंने वहाँ बसाया और शेष स्त्रियों को लेकर हस्तिनापुर लौटे। पुरुषसिंह अर्जुन ने उस नगर का जो-जो भाग छोड़ा, उसे समुद्र ने अपने जल से आप्लावित कर दिया। वन-नदी-पर्वतों का लम्बा रास्ता तय करके जब अर्जुन पंचनद प्रदेश में आये तो वहा के लुटेरे और लठैत मनुष्यों ने उन पर आक्रमण किया। सम्भवतः ये सरस्वती तटवासी आभीर थे।[1] अर्जुन ने उस अवसर पर अपने धनुष गाण्डीव को चढ़ाना आरम्भ किया और बड़े प्रयत्न से किसी तरह उसे चढ़ा पाया। उन्होंने धनुष पर प्रत्यंचा तो चढ़ा दी, परन्तु जब वह अपने अस्त्र-शस्त्रों का चिन्तन करने लगे, तो उन्हें उनकी याद बिल्कुल नहीं आ पाई। युद्ध के अवसर पर अपने बाहुबल में यह महान विकार आया देख और महान दिव्यास्त्रों का विस्मरण हुआ जान वे लज्जित हो गये। सैनिक बल भी कुछ काम न आया। कुछ स्त्रियों को डाकुओं ने लूटा और कुछ उनके स्पर्शभय से चली गईं। कृतवर्मा के पुत्र को और भोजराज के परिवार की अपहरण से बची हुई स्त्रियों को अर्जुन ने मार्तिकावत नगर में बसा दिया। तत्पश्चात वीर-विहीन सभीत वृद्धों, बालकों तथा अन्य स्त्रियों को साथ लेकर वे इन्द्रप्रस्थ आये और उन सबको वहाँ का निवासी बना दिया। धर्मात्मा अर्जुन ने सात्यकि के प्रिय पुत्र यौयुधानिक को सरस्वती तटवर्ती देश का अधिकारी एवं निवासी बना दिया और वृद्धों और बालकों को उसके साथ कर दिया। इसके बाद शत्रु वीरों का संहार करने वाले अर्जुन ने वज्र को इन्द्रप्रस्थ का राज्य दे दिया। अक्रूर जी की स्त्रियाँ वज्र के बहुत रोकने पर भी वन में तपस्या करने के लिय चली गईं। रुक्मिणी, वैश्या, हेमवती तथा जाम्बवती देवी ने पतिलोक के प्राप्ति के लिए अग्नि में प्रवेश किया। श्रीकृष्ण की प्रिया सत्यभामा तथा अन्य देवियाँ तपस्या का निश्चय करके वन में चली गईं। जो-जो द्वारकावासी मनुष्य पार्थ के साथ आये थे, उन सबका यथायोग्य विभाग करके अर्जुन ने उन्हें वज्र को सौंप दिया। अर्जुन ने व्यास के आश्रम में पहुँच कर सब समाचार सुनाया। व्यास जी ने उन्हें काल की महिमा बताकर धैर्य दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7। 47
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