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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 43-51
16. दुर्योधन का सन्ताप
पहले-बताया जा चुका है कि राजसूय यज्ञ में राजाओं द्वारा लाई गई उपहार-सामग्री को भली प्रकार लेकर रखने का कार्य दुर्योधन को सौंपा गया था। उस वैभव को और मय द्वारा बनाइ विलक्षण सभा को देखकर दुर्योधन का हृदय ईर्ष्या से उसे नोचने लगा। इस सभा में अनेक प्रकार के दिव्य अभिप्राय बने हुए थे। यहीं पर स्फटिक की तरह चमकते हुए फर्श को देखकर उसे थल में जल होने का भ्रम हुआ था और जल को स्थल समझकर वह वापी में गिरकर भीग गया था। इस सन्ताप से भरा हुआ वह युधिष्ठिर से विदा लेकर हस्तिनापुर लौटा। पाण्डवों के यश और महिमा से संतप्त उसका रंग फीका पड़ गया और वह विक्षिप्त-सा रहने लगा। उसे इस अवस्था में देखकर शकुनि ने उसके दुःख का कारण पूछा। दुर्योधन ने उससे अपने मन की बात कही, “वह युधिष्ठिर सारी पृथ्वी का राजा हो गया है, उसके पास कितनी सम्पत्ति आ गई है, उसने इतना बड़ा यज्ञ कर लिया है, वह देखकर भी मैं कैसे सुखी रह सकता हूं? मैं अशक्त और असहाय हूं, इससे सोचता हूँ कि मृत्यु ही अच्छी। युधिष्ठिर के विनाश के लिए मैंने जितना प्रयत्न किया वह सब व्यर्थ गया। पानी में कमल की तरह वह दिन-दिन बढ़ता ही जाता है। इसलिए हे मामा, मुझ दुःखी पर तरस खाकर धृतराष्ट्र से यह सब हाल कहो।” यह सुनकर शकुनि ने उसे समझाना चाहा, किन्तु कोई प्रतिकार न देखकर उसने धृतराष्ट्र से सब हाल कहा, “महाराज, दुर्योधन शोक से पीला पड़ गया है। क्या आपको इसका कुछ पता नहीं?” धृतराष्ट्र ने दुर्योधन की ओर देखकर पूछा, “हे पुत्र तुम क्यों दुःखी हो? मुझे तुम्हारे शोक का कारण नहीं जान पड़ता। सारा ऐश्वर्य मैंने तुम्हें सौंप रखा है। तुम अच्छा खाते-पहनते हो, फिर क्यों दीन और कृश हो? भोग के सब पदार्थ देवताओं की तरह तुम्हारी वाणी के अधीन हैं।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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