विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 34
द्यूत-सभा में युधिष्ठिर ने जिस प्रकार मूढ़ बनकर विपत्ति को न्योता दिया, उससे शेष चारों भाइयों और द्रौपदी को क्षोभ होना स्वाभाविक था। द्रौपदी ने उस समय असाधारण धैर्य दिखलाया। उसको युधिष्ठिर की दुर्बुद्धि और दुर्योधन की कुटिलता का सबसे अधिक मूल्य चुकाना पड़ा था। उसके जीवन की सारी आस्था हिल गई। वह इस विषय में स्तम्भित हो गई कि पुरुष-समाज सदाचार-सम्बन्धी मर्यादाओं के विषय में कहाँ तक पतन की ओर जा सकता है। सम्भव है, यदि कृष्ण के धर्म-परायण व्यक्तित्व पर उसके मन में उस समय आस्था न रह गई होती तो उसके अपने व्यक्तित्व का सूत्र छिन्न-भिन्न हेाकर टूट गया होता। उसकी व्यथा, आक्रोश, करुणा और रोष का सचमुच पारावार नहीं था। उसके मन के अगाध शोक को प्रकट होने के लिए अवसर चाहिए था। वनवास के इस आरम्भिक काल में जब उसे अवसर मिला, तब उसके दुःख का बांध टूटकर बह निकला। किन्तु फिर भी ऐसा लगता है कि द्रौपदी के मन की सारी पीड़ा को शब्दों में व्यक्त करने की शक्ति ग्रन्थकार के पास न थी। द्रौपदी के अनकहे दुःख में और भी अगाध व्यथा भरी रह जाती है। द्रौपदी ने युधिष्ठिर से जो कहा, उसे भीमसेन ने भी सुना। भीमसेन की प्रकृति दूसरे प्रकार की थी। भरी सभा में ही वह युधिष्ठिर की भुजाओं को आग से जला देने की बात कह चुका था। तब अर्जुन ने किसी प्रकार उसे शान्त किया था। द्रौपदी के कथन ने उसकी उस प्रसुप्त क्रोधाग्नि को फिर भड़का दिया। वह क्रोध से फुफकारता हुआ युधिष्ठिर से बोलाः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्र.स. | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज