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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 34
“सत्पुरुष जिस तरह राज्य किया करते हैं, वैसे धर्मपूर्वक करो। धर्म, काम और अर्थ तीनों को गंवाकर यहाँ जगत में पड़े रहने से क्या लाभ? दुर्योधन ने धर्म या बल से राज्य न लेकर पांसों से हमें छला है। सियार जैसे बली सिंहों का जूठा मांस खाता है, वैसे ही उसने हमारा राज्य लिया है। इन्द्र भी जिसे नहीं ले सकते थे, उस राज्य को हमारे देखते हुए तुम्हारी करतूतों ने खो दिया। तुम्हारे कारण हमारा सब ऐश्वर्य चला गया, जैसे लंगड़े ग्वाले के कारण जंगल में गायें खो जाती है। आपका जो अनोखा शास्त्र है, उसकी अड़चन से हम इन दुर्बुद्धि धार्त्तराष्ट्रों के टुकड़े-टुकड़े नहीं कर पाते। मृगों की भाँति अपने इस वनवास पर विचार करो। कृष्ण, अभिमन्यु, अर्जुन और हममें से कोई भी इसे अच्छा नहीं समझता। आप सदा धर्म-धर्म रटकर दुबले हुए जाते हैं। उसी के कारण तो कहीं नपुंसकों की-सी इस जीविका को प्राप्त नहीं हो गए? आपका यह झूठा वैराग्य सर्वघाती है। आपके हृदय में चक्षुष्मत्ता है, बाहुओं में बल है, फिर भी क्यों इसे नहीं देखते? हम युद्ध में मारे जायं तो इसका दुःख न होगा। किन्तु हम सहते चले जायं और ये धार्त्तराष्ट्र हमें असत समझें, यह बड़ा दुःख है। जो धर्म मित्रों के और अपने दुःख का कारण हो‚ वह व्यसन है, धर्म नहीं; उसे कुधर्म कहा जायगा। धर्म में शक्ति होनी चाहिए। जिसका धर्म दुर्बल है और फिर भी सदा धर्म की रट लगाता है, उसे धर्म और अर्थ दोनों छोड़ देते हैं, जैसे मृत व्यक्ति को सुख-दुःख छोड़ देते हैं। कोरे धर्म के लिए धर्म को पकड़े रहना क्लेश का कारण है, बुद्धिमानी नहीं। ऐसा मूढ़ धर्म के अर्थ को नहीं जानता, जैसे अन्धा सूर्य के प्रकाश को। जो केवल धन के लिए धन चाहता है, वह धन के मर्म को नहीं जानता। वह तो ऐसा है, जैसे नौकर दूसरे के खेत की रखवाली करता है। कोई व्यक्ति अन्धाधुंध अर्थ के पीछे पकड़कर धर्म और काम को भुला दे तो उसे सब लोग निन्दित ब्रह्मघाती के समान वध्य समझते हैं। ऐसे ही जो केवल काम के पीछे धर्म-अर्थ को भुला देता है उसके मित्र भी छूट जाते हैं, धर्म और अर्थ तो रहते ही नहीं, जल के क्षीण होने पर मछली के समान उसका निधन निश्चित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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