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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 5
15. युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ
दिग्विजय होने पर राजसूय यज्ञ का भाव युधिष्ठिर के मन में जोर पकड़ने लगा। सर्वप्रथम उन्होंने अपने राज्य का सुशासन किया। शत्रुओं के शेष हो जाने से आन्तरिक रक्षण द्वारा शान्ति से और राजकाज के सब व्यवहारों में सच्चाई बरतने से प्रजाएं अपने-अपने काम में लग गईं। मेघों ने समय पर जल बरसाया। प्रजाओं से ठीक मात्रा में कर लिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि सारा जनपद जीवन से लहलहा उठा। गोरक्षा, कृषि और वाणिज्य, ये तीनों कार्य भली-भाँति चल निकले। विशेषतः राज्य के प्रोत्साहन से इनकी अधिक उन्नति हुईः
धर्मानुकूल धनागम से युधिष्ठिर के कोषागार और कोष्ठागार में महान संचय हो गया। यह देखकर राजा ने यज्ञ का विचार मन में किया। मित्रों ने भी यही सुझाव दिया। इसी समय कृष्ण भी द्वारका से वहाँ आए। उनके आगमन से इन्द्रप्रस्थ हर्ष से भर गया, जैसे सूर्यहीन प्रदेश में सूर्य के आने से और वायुरहित स्थान में वायु के संचार से आनन्द हो जाता है। स्वागत-सत्कार के अनन्तर युधिष्ठिर ने कृष्ण से कहा, “हे कृष्ण, आपकी कृपा से सारी पृथ्वी मेरे वश में हो गई है और बहुत-सा धन भी प्राप्त हो गया है। अब मेरी इच्छा है कि मैं आपके साथ विधिवत यज्ञ करके इसका उपयोग करूं, सो आप आज्ञा दें। हे गोविंद, आप ही दीक्षा ग्रहण करें, क्योंकि आपके यज्ञ करने से मैं भी पापरहित हो जाऊंगा, अथवा आप मुझे ही आज्ञा करें, जिससे आपकी अनुज्ञा पाकर मैं इस उत्तम क्रतु को करूं।” यह सुनकर कृष्ण ने उत्तर दिया, “हे राजन, तुम्हीं राजसूय जैसे महायज्ञ करने के योग्य सम्राट हो, तुम्हारे यज्ञ करने से हम लोग भी कृतकृत्य होंगे। जो मेरे योग्य कार्य हो बताओ।” यह सुनकर युधिष्ठिर ने कहा, “हे कृष्ण, अब मेरा संकल्प सफल हुआ और अब मुझे अवश्य सिद्धि मिलेगी।” इस प्रकार कृष्ण की अनुमति पाकर युधिष्ठिर ने सहदेव को और मन्त्रियों को आज्ञा दी कि राजसूय के लिए आवश्यक सामग्री, यज्ञ-पात्र, मंगलात्मक वस्तुएं और अन्न आदि समस्त सम्भार का प्रबन्ध किया जाय। उस यज्ञ में व्यास स्वयं ब्रह्मा बने। उन्होंने अनेक वेदज्ञ ऋत्विजों को बुलाया। ब्रह्मिष्ठ, याज्ञवल्क्य, अध्वर्यु और पैल नामक ऋषि धौम्य के साथ होता बने। पुण्याहवाचन के अनन्तर वह देवयजन-कार्य शास्त्रोक्त-विधि से प्रारम्भ हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सभा. 30।3
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