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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
9. शल्य पर्व
अध्याय : 28
अब भारत युद्ध की महती कथा का अन्त हो रहा है। 65. शल्य युद्ध वर्णन
कर्ण-वध के बाद शल्य को सेनापति बनाया गया। शल्य केवल आधे दिन सेनापति रहा। इस घमासान युद्ध में बचे-खुचे वीर भी एक-एक करके काम आ गए। कृष्ण ने युधिष्ठिर को शल्य को मारने के लिए बहुत प्रोत्साहित किया और अन्त में युधिष्ठिर के हाथों ही शल्य और उसके भाई का वध हो गया। इस स्थिति से निराश होकर दुर्योधन युद्ध भूमि से भाग गया और द्वैपायन सरोवर नामक तालाब में जा छिपा। अर्जुन ने त्रिगर्तराज सुशर्मा और सहदेव ने शकुनि और उसके पुत्र उलूक का वध कर डाला। अश्वत्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्य ने व्याधों से दुर्योधन का पता पा, वहीं पहुँचकर उससे फिर युद्ध के बारे में परामर्श किया। इधर पाण्डव भी दुर्योधन की खोज करते हुए द्वैपायन सरोवर पर जा पहुँचे। युधिष्ठिर के कहने पर दुर्योधन तालाब से बाहर निकल आया और उसने युधिष्ठिर के कथन के अनुसार पांच पाण्डवों में से किसी एक के साथ युद्ध करना स्वीकार किया। इस बात पर कृष्ण को भी ताव आ गया और उन्होंने युधिष्ठिर की उस मूर्खता पर भर्त्सना की। किन्तु दुर्योधन ने वीरोचित स्वभाव के अनुकूल भीम को ही युद्ध के लिए चुना। युद्धारम्भ से पहले ही बलराम तीर्थयात्रा के इरादे से द्वारका से चले और मार्ग में प्रभास तीर्थ का दर्शन करके वहाँ से सीधे सरस्वती के विनशन प्रदेश में आ गए और कुरुक्षेत्र के सब सारस्वत तीर्थों की यात्रा समाप्त करके भीम-दुर्योधन के युद्ध के अवसर पर युद्धस्थल पर आ पहुँचे। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि अत्यन्त प्राचीन काल से एक मार्ग द्वारावती से कम्बोज देश की ओर जाता था। यह द्वारावती से चलकर सरस्वती और मही के कांठो के बीच में होता हुआ अरावली पहाड़ के दक्षिण-पश्चिम की ओर घूमकर मरुभूमि के पार सिन्धु नदी के किनारे पर जा निकलता था और वहाँ से उत्तर की ओर घूमकर उत्तरी सिन्धु की, जिसे उस समय सौवीर कहते थे, राजधानी सक्कर रोड़ी (प्राचीन शार्कर रोरुक) से जा मिलता था। वहाँ से उस मार्ग की एक शाखा उत्तर की ओर सिन्धु नदी के किनारे-किनारे पंजाब देश को चली जाती थी। उसी मार्ग की दूसरी शाखा दाहिने घूमकर सरस्वती के उस प्रदेश की ओर चली जाती थी, जहाँ उत्तरी बीकानेर में सरस्वती रेगिस्तान में खो जाती है। उसे उस समय विनशन कहते थे और आज वही कोलायत के नाम से प्रसिद्ध है। सरस्वती की यह धारा किसी समय भरी-पूरी थी और यहाँ कितने ही सन्निवेश थे, किन्तु रेगिस्तान के बढ़ आने से अब वे सब बालू में दब गये हैं। किसी समय सरस्वती नदी के किनारे का मार्ग बहुत चालू था। भागवत में दो बार इस मार्ग का उल्लेख आया है। एक बार कृष्ण के हस्तिनापुर से द्वारिका और दूसरी बार द्वारिका से हस्तिनापुर आने का वर्णन है। और वहाँ इस मार्ग के बीच के पहाड़ों का भी स्पष्ट उल्लेख है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1। 10। 34-35 भागवत्
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