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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 130
सरस्वती के समीप ही कहीं उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु का आश्रम था। श्वेतकेतु उपनिषद-युग के ब्रह्मवेत्ता ऋषि थे। यहाँ कहा गया है कि उन्होंने सरस्वती का साक्षात दर्शन किया था। श्वेतकेतु के मामा अष्टावक्र थे, जो उद्दालक के शिष्य कहोड के पुत्र थे। उद्दालक ने अपनी पुत्री सुजाता का विवाह कहोड से किया। कहा जाता है कि गर्भ में रहते हुए ही अष्टावक्र ने अपने पिता महर्षि कहोड को टोका कि आप रात्रि के समय इतना अधिक अध्ययन न किया कीजिए। इस उपालम्भ से कुपित पिता ने पुत्र को शाप दिया, जिससे शरीर के वक्र हो जाने के कारण पुत्र अष्टावक्र कहे गए। कहानी के इस झीने आवरण के नीचे तथ्य यह जान पड़ता है कि ऋषि पत्नि अपने पति की रागहीन वेदाभ्यास जड़ता से प्रसन्न न थी। कथा में स्पष्ट कहा गया है कि सुजाता धनार्थिनी थी। उसने पति से कहा, ‘‘बिना धन के मैं कैसे काम चलाऊंगी? मुझे दसवा भाग महीना लग गया है। घर में पैसा-कोड़ी नहीं है। पुत्र जनने पर मैं कैसे इस आपत्ति से निस्तार पाऊंगी?’’ पत्नी की यह बात सुनकर कहोड धन के लिए जनक के यहाँ गए। वहाँ जनक के विद्वान पुरोहित बन्दी का यह नियम था कि जो उससे शास्त्रार्थ में हारता, उसे वह जल में डुबाकर प्राण ले लेता था। कहोड के साथ भी ऐसा ही हुआ। माता ने पहले तो पुत्र से यह बात छिपाई, किन्तु बड़े होने पर अष्टावक्र को सब वृतान्त ज्ञात हो गया। तब वह अपने मामा श्वेतकेतु को साथ लेकर जनक के यज्ञ में पहुँचे। उनकी छोटी आयु देखकर द्वारपाल ने भीतर जाने से रोका। अष्टावक्र ने कहा, ‘‘बालक जानकर हमारा अपमान मत करो। बाल-अग्नि भी छूने से जला देती है। हम जितेन्द्रिय और ज्ञान-वृद्ध हैं। वेद के प्रभाव से हमें प्रवेश करने का अधिकार है।’’ द्वारपाल ने उत्तर दिया, ‘‘क्या तुम वेद सम्मत बहुरूपा उस वाणी का उच्चारण कर सकते हो, जो विराट अर्थों से युक्त होते हुए एक अक्षर ब्रह्म का वर्णन करती है? अरे, अपनी छोटी आयु को देखो। क्यों व्यर्थ दुर्लभ वाद-सिद्धि की बात सोचते हो?’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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