भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
खण्ड : 1
‘भारत सावित्री’ के रूप में महाभारत का एक नया अध्ययन यहाँ प्रस्तुत किया गया है। इस अध्ययन के अट्ठाइस लेख ‘हिन्दुस्तान’ साप्ताहिक पत्र में धारावाहिक रूप से 1953-54 में प्रकाशित हुए थे, शेष अंश बाद में लिखा गया है। पुस्तक तीन खण्डों में है। इस प्रथम खण्ड में ‘विराट पर्व’ तक की कथा आ गई है। दूसरे खण्ड में ‘उद्योग पर्व’ से ‘स्त्री पर्व’ अर्थात युद्ध के अन्त तक की कथा है और तीसरे खण्ड में ‘शान्ति पर्व’ से लेकर महाभारत के अन्त तक का अंश दिया गया है। ‘भारत सावित्री’ नाम महाभारत के अन्त में आया है। जैसे वेदों का सार गायत्री मन्त्र या सावित्री है, वैसे ही सम्पूर्ण महाभारत का सार धर्म शब्द में है। भारत-युद्ध की कथा तो निमित्त मात्र है, इसके आधार पर महाभारत के मनीषी लेखक ने युद्ध-कथा को धर्म-संहिता के रूप में परिवर्तित कर दिया था। धर्म की नित्य महिमा को बताने के लिए ग्रन्थ के अन्त में यह श्लोक हैः
अर्थात-काम से, भय से, लोभ से अथवा प्राणों के लिए भी धर्म को छोड़ना उचित नहीं। धर्म नित्य है, सुख और दुःख क्षणिक हैं। जीव नित्य है और शरीर (धातु) अनित्य है। इस श्लोक की संज्ञा भारत सावित्री है।[2] यही महाभारत का निचोड़ या उसका गायत्री मन्त्र है। विश्व की प्रेरक शक्ति का नाम सविता है। महाभारत-ग्रन्थ का जो धर्मप्रधान उद्देश्य है, वही उसका सविता देवता है। उसकी प्रेरणात्मक भावना को इस अध्ययन में यथासम्भव सुरक्षित रखा गया है। यही इस नाम का हेतु है। वेदों में सृष्टि के अखण्ड विश्वव्यापी नियमों को ऋत कहा गया था। ऋत के अनुसार जीवन का व्यवहार मानव के लिए श्रेष्ठ मार्ग था। ऋत के विपरीत जो कर्म और विचार थे, उन्हें वरुण का पाश या बन्धन समझा जाता था। वैदिक परिभाषाओं का आने वाले युग में विकास हुआ। उस समय जो शब्द सबसे ऊपर तैर आया, वह धर्म था। धर्म शब्द भारतीय संस्कृति का सार्थक और समर्थ शब्द बन गया। महाभारतकार ने धर्म की एक नई व्याख्या रखी है, अर्थात प्रजा और समाज को धारण करने वाले, नियमों का नाम धर्म है। जिस तत्त्व में धारण करने की शक्ति है, उसे ही धर्म कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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