विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 59-66
74. दस्यु जातियों का आर्य संस्कृति में परिवर्तन
मान्धाता ने पुनः उसी प्रसंग को लेकर कहा कि जिन दस्युओं अर्थात विदेशी जंगली जातियों का मैंने पहले उल्लेख दिया है, वे दस्यु सब वर्णों में हैं और चारों आश्रमों में विभिन्न लक्षणों को स्वीकार रहते हैं। यह बात यथार्थ थी, जैसा कि बिहार के ‘शाकलदीपी’ मग ब्राह्मण और राजस्थान की हूण ब्राह्मण एवं हूण क्षत्रिय जातियों से ज्ञात होता है। इन्हीं में जाट एवं गूजरों की गिनती थी। उन सबको आर्य प्रभाव में लाना आवश्यक था। इन्द्र ने उत्तर दिया, “जब दण्ड नीति का नाश हो जाता है और राजधर्म का निराकरण हो जाता है तब उन-उन जातियों के राजा दुरात्मा हो जाते हैं। उनके अनुयायी भी बिगड़ जाते हैं। वे मोह में पड़ जाते हैं। ऐसे समय में असंख्य मनुष्य भिक्षु बन जाते हैं और भाँति-भाँति के भेष धारण कर लेते हैं। सत्ययुग का लोप होने से चारों आश्रमों में व्यक्ति नाना रूप धारण कर लेते हैं। वे लोग प्राचीन धर्मों को अनसुना करके काम और क्रोध के वश में हो जाते हैं। मनमाना व्यवहार करने लगते हैं तथा उत्पथ में पड़ जाते हैं। जब महात्मा राजाओं द्वारा दण्डनीति के प्रयोग से पाप की निवृत्ति की जाती है तब शाश्वत धर्म विचलित नहीं होता है। जो परलोक, गुरु और राजा को नहीं मानता उसका यज्ञ करना, श्राद्ध करना निष्फल है। मनुष्यों के अधिपति राजा को, जिसके शरीर में आठ लोकपालों के अंश हैं, देवता भी मानते हैं। जिस प्रजापति ने यह सारा विश्व रचा है, वह प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्मों के लिए क्षात्र धर्म की ओर ध्यान देता है। वह मेरे लिए मान्य और पूज्य है, क्योंकि क्षात्र धर्म की प्रतिष्ठा प्रवृत्ति धर्म में ही है।” भीष्म ने कहा, “इस प्रकार जब धर्म का ठीक आचरण होने लगा तब किसी का साहस क्षात्र धर्म की अवहेलना करने का न हुआ। तुम अपने राज्य में आरम्भ से ही चक्र का प्रवर्तन करो, अर्थात चक्रवर्ती के दायित्व का वहन करो। आरम्भ से ही परम पुरुष भगवान विष्णु की शरण में जाओ, तो तुम्हें चक्र-प्रवर्तन में कोई कठिनाई न होगी, ऐसा मेरा मत है।” ज्ञात होता है कि अन्तिम श्लोक में भीष्म ने चक्रपुरुष या विष्णु के चक्रपुरुष की ओर ध्यान दिलाया है, जिसके अनुसार समस्त राज्य को चक्रपुरुष के नारायणी स्वरूप और दुर्धर्ष स्वरूप का अंग माना जाता था। राजा का जैसा संकल्प होता था वैसा ही वह राज्य को ढाल लेता था। चक्र पुरुष का पूरा स्वरूप अहिर्बुध्न्य संहिता’ में बताया गया है, जो गुप्त युग के भागवतों का महान ग्रन्थ है। युधिष्ठिर ने कथा का पहला सूत्र जोड़ते हुए कहा, “मैंने सुना है आश्रम चार होते हैं। हे पितामह उनकी व्याख्या कीजिये।” उत्तर में भीष्म ने चार आश्रमों के कर्मों को राजधर्म में ही घटाकर गृहस्थ आश्रम को सबसे बड़ा बताया। काम-द्वेष-रहित दण्डनीति का सेवन करने से राजा मानों संन्यास आश्रम (भैक्ष्याश्रम) का पालन करता है। जो धन संग्रह और उसके त्याग को निग्रह एवं अनुग्रह को वीरोचित वृत्ति से जानता है, वह गृहस्थ आश्रम का फल प्राप्त करता है।[1] ज्ञाति सम्बन्धियों, और मित्रों का विपत्ति में जो उद्धार करता है, वह ब्रह्मचर्य आश्रम[2] का फल पाता है। जो राजा अपने आह्निक का ठीक से निर्वाह करता है और भूत तथा पितृयज्ञों को करता है, वह वानप्रस्थ[3] का फल प्राप्त करता है। सब भूतों का पालन और राष्ट्र के पालन से राजा वानप्रस्थ आश्रम का फल प्राप्त करता है। वेदाध्ययन, क्षमा, आचार्य-पूजा, उपाध्याय की सेवा से राजा को ब्रह्मचर्य आश्रम का फल मिलता है। सब प्राणियों में कुटिलता-शठता-रहित व्यवहार करने से राजा को ब्रह्मचर्य आश्रम का फल मिलता है। वानप्रस्थ ब्राह्मणों और त्रैविध ब्राह्मणों में धन का वितरण करने से राजा को वानप्रस्थ का फल मिलता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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