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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
13. अनुशासन पर्व
अध्याय : 1-146
पुराणों के युग में व्रतोपवास नामक नया प्रकरण बहुत पल्लवित हुआ। ब्रह्मा और भगीरथ के संवाद रूप में यज्ञ, तप तथा दान से भी उपवास या अनशन की महिमा अधिक कही गई है। अनेक यज्ञों के करने का भी जो फल नहीं है, वह अनशन से प्राप्त होता है।[1] यज्ञ द्रव्य-साध्य होते हैं, किन्तु धनहीन व्यक्ति को यज्ञ का फल उपवास से प्राप्त हो जाता है। प्रातः काल के कलेवे और सायं काल के ब्यालू के अतिरिक्त जो कुछ नहीं खाता उसे पांच वर्ष में सिद्धि हो जाती है। दूसरे, तीसरे, पांचवे, छठवें, सातवें दिन जो केवल एक समय 12 मास तक भोजन करे, वह अनेक यज्ञों का फल प्राप्त करता है। इस प्रकार के व्रतों का विधान प्रायः पाशुपत आचार्य अपने शिष्यों के लिए करते थे। ये व्रत काल की अवधि बढ़ाकर पन्द्रह दिन और एक मास तक के लिए किये जाते थे। उनके करने वाले व्रती और महाव्रती कहलाते थे। जो एक वर्ष तक केवल आठवें दिन एकाहार रहे, उसे बहुत लाभ होता है। उसका वर्ण कमल के समान हो जाता है। ऐसे 9वें, 10वें, 11वें और 12वें दिन एकाहार द्वारा वर्षपर्यन्त उपवास का फल है। यही विकल्प है कि जिसकी जैसे शक्ति हो वह वैसा करे। जो अनशन करता है, वह सुधामृत का पान करता है और उसे सूर्य चन्द्र लोक तक यश मिलता है। 12 माह जो एक समय भोजन करता है, उसे अमृत भोजन का सुख मिलता है। इसी प्रकार 21, 22, 23, 24, 25, 26 27, 28 और 29वें दिन वर्ष भर तक एक-आहार चलाने का महत्त्व है। अन्त में मासोपवास का ही सबसे अधिक फल है। कुछ लोग तिथि विशेष को उपवास रखने का नियम धारण कर लेते हैं। जैसे द्वादशी को विष्णु के निमित्त व्रत।[2] 97.तीर्थ
तीर्थ यात्रा का भी धर्म के क्षेत्र में प्रभाव बढ़ गया था। वितस्ता, सिन्धु, चन्द्रभागा, पुष्कर, प्रभास, नैमिष, सागर, देवकाम, इन्द्रमार्ग, स्वर्णबिन्दु, हिरण्यबिन्दु, इन्द्रतोया, गन्धमादन, करतोया, कुरंग, गंगाद्वार, कुशावत्र्त, बिल्वक, नीलपर्वत, कनखल, भागीरथी (वाराणसी) गंगा, सप्त गंगा, त्रिगंगा, इन्द्रमार्ग, महाहृद, भृगुतुंग, देविका, सुन्दरिका, गंगा-यमुना संगम हद, महागंगा, वैव्यानिक, विपाशा, कृत्तिकाश्रम, देवदारुवन, शरस्ताव, कुशस्तव, चित्रकूट, जनस्थान, श्यामप्रिय, कौशिकी, मतंगवापी, गंगाह्रद, उत्प्लावन (प्रयाग), दशाश्वमेध, कालन्जर, षष्टिहद (प्रयाग), मरुद्गण, वैवस्वत, ब्रह्मसर, भागीरथी, उत्पतन, अष्टावक्र, अश्मपृष्ठ गया, निरविन्द, क्रौन्चपदी, कलविंक, अग्निकन्या, करवीरपुर, विशाला, देेवहद, आवर्तनन्दा, महानन्दा, उर्वशी तीर्थ, लौहित्य, रामहद, विन्ध्य, नर्मदा, शूर्पारक, जम्बूमार्ग, कोकामुख, अन्जलिकाश्रम, कन्याकुमारी, उज्जानर्क, आर्षिषेण, पिंगा, कुल्या, पिण्डारक, ब्रह्मसर, मैनाक, कालोदक, नन्दिकुण्ड, नन्दीश्वर-अंगिरा द्वारा कही हुई यह तीर्थमाला बिना किसी भौगोलिक क्रम के है। लेखक के उस समय की एक तीर्थ-सूची लेकर अपनी योग्यता के अनुसार श्लोकों में पिरो दी है। इसमें लगभग 90 तीर्थों के नाम हैं। आरण्यक पर्व में छोटी-बड़ी तीन तीर्थ मालाएं दी गई हैं। उनसे इसकी तुलना करनी चाहिए। अध्याय 26 में गंगा माहात्मय का वर्णन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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