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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
15. आश्रमवासिक पर्व
अध्याय : 1-42
आश्रमवासिक पर्व की कथा एकदम सीधी है। बूढ़े धृतराष्ट्र और माता गान्धारी जब तक हस्तिनापुर में रहे सकुटुम्ब युधिष्ठिर ने उनकी बड़ी सेवा की। एक दिन राजा धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर से अनुरोध किया कि वह जंगल में जाकर आश्रमवास करना चाहते हैं। लेखक ने एक मनोवैज्ञानिक तथ्य का उल्लेख किया है और वह यह है कि युधिष्ठिर तथा उनके दूसरे भाई धृतराष्ट्र को सब प्रकार का सुख पहुँचाते थे, पर धृतराष्ट्र का मन भीमसेन की ओर से साफ न था। भीमसेन कुछ-न-कुछ ऐसा करते या कहते थे कि धृतराष्ट्र के मन को चोट लगे। अन्त में धृतराष्ट्र के आश्रमवास का निश्चय किया और युधिष्ठिर ने व्यास के समझाने से उसकी अनुमति भी दे दी। चलने से पहले धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को उपदेश दिया जिसका सार यह था- हे युधिष्ठिर, धर्म से राज्य संचालन करना, बड़े-बूढ़ो की बात सुनना, पुराने मन्त्रियों की सलाह मानना, विश्वस्त गुप्तचरों का सहयोग लेना, अपने मन्त्र को गुप्त रखना, नगर की ओर ध्यान देना। भोजन आदि के अवसर पर आत्मरक्षा की ओर ध्यान देना। जिनका कुल शील ज्ञात है उनसे बोलना चाहिए इत्यादि। एक प्रकार से भारतीय राजधर्म की मोटी-मोटी बातें इस उपदेश के तीन अध्यायो में आ गई है।[1] इसे धृतराष्ट्र राजनीति कहा है। धृतराष्ट्र और गान्धारी ने महल में जाकर अन्तिम भोजन किया और वहाँ से गंगा किनारे आ गये। फिर वहाँ से पदयात्रा करते हुए कुरुक्षेत्र में शतयूप मुनि के आश्रम में आश्रमवास के लिए गये। वहाँ नारद जी भी उनसे मिलने आये और उन्होंने कई दृष्टान्त सुनाकर धृतराष्ट्र के विचारों को स्पष्ट किया और उनकी श्रद्धा को बढ़ाया। वस्तुतः विदुर के समझाने से धृतराष्ट्र की बुद्धि में ऐसा परिवर्तन हुआ था। भीमसेन जो छेड़छाड़ करते रहते थे उसका निपटारा विदुर को ही सुनना पड़ता था और इसीलिए उन्होंने धृतराष्ट्र को समझाया कि अब तुम्हारे लिए यही उचित है कि राजभवन का निवास छोड़कर आश्रमवास के लिए बाहर चले जाओ। उन्होंने कुन्ती को भी साथ में लिया और स्वयं भी चले गये। विदुर धृतराष्ट्र के जन्म के साथी थे और ऊँच-नीच के बहुत-से अवसरों पर उन्होंने धृतराष्ट्र को समझाया। एक ऐसा प्रकरण प्रजागर पर्व या विदुर नीति है जिसे हमने उद्योग पर्व में प्रज्ञा दर्शन का ग्रन्थ कहा है और तदनुसार व्याख्या की है। विदुर और धृतराष्ट्र में गाढ़ी मैत्री थी, पर दृष्टिकोण का अन्तर था। विदुर प्रज्ञावदी और धृतराष्ट्र भाग्यवादी थे। चलने से पूर्व जैसा उचित था प्रजाओं ने आकर धृतराष्ट्र से बहुत अनुनय-विनय और साम्ब नाम के एक ब्राह्मण ने उन्हें बहुत तरह से समझाया और अपने भाव प्रकट किये। इसके बाद चलते-चलते एक कड़वी घटना घट गई जिससे धृतराष्ट्र की लाचारी प्रकट होती है। उन्होंने अपने पुत्रों का श्राद्ध करने के लिए राजकोष से कुछ धन माँगा। अर्जुन ने कहा-हाँ ठीक है, धन देना चाहिए, पर भीमसेन सहमन न हुए और उन्होंने राजा की इच्छा का विरोध किया। यह बात धृतराष्ट्र को कितनी खटकी होगी? धन तो दिया ही गया, किन्तु ऐसी कड़वाहट के साथ जिससे धृतराष्ट्र को जीते जी चुभन होती रही। चलने से पहले धृतराष्ट्र ने अपने पुत्रों के लिए पर्याप्त धन व्यय करके श्राद्ध का काम पूरा कर दिया। इस अवसर पर पाण्डवों ने माता कुन्ती को रोकना चाहा, पर वे अपने निश्चय पर दृढ़ रहीं। सहदेव और द्रौपदी ने भी साथ जाने का उत्साह प्रकट किया। युधिष्ठिर अपनी सेना के साथ कुरुक्षेत्र तक मिलने गये। साथ में संजय भी गये और उन्होंने कुरुक्षेत्र में वहाँ के ऋषियों के साथ राजकुल की स्त्रियों का परिचय कराया। कुछ दिन वहाँ प्रसन्नता के वातावरण में बिताकर युधिष्ठिर और उनके कुटुम्बी हस्तिनापुर लौट आये। फिर नारद जी ने आकर सूचना दी कि धृतराष्ट्र, गान्धारी, कुन्ती दावानल में दग्ध हो गये, इससे युधिष्ठिर को बहुत शोक हुआ। युधिष्ठिर ने उनके फूल चुनवा कर गंगा जी में श्राद्ध किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5, 6, 7
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