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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
7. द्रोण पर्व
अध्याय : 166-173
रात्रि-युद्ध से थके-मांदे सैनिकों ने दिन में विश्राम किया और चन्द्रोदय के बाद से पुनः युद्ध शुरू हो गया, जो उस रात्रि को और अगले दिन चलता रहा। सब पाण्डव-वीरों ने द्रोण पर आक्रमण किया, किन्तु द्रुपद एवं विराट दोनों खेत रहे। तब धृष्टद्युम्न ने और भी घोर आक्रमण किया, पर द्रोणाचार्य ने संग्राम में बहुत भयंकर रूप धारण किया। उससे पाण्डव-पक्ष में अत्यन्त निराशा छा गई। तब उनकी ओर से अश्वत्थामा की मृत्यु का समाचार फैला दिया गया। उसे सुनकर द्रोण जीवन से निराश हो गये और उन्होंने अस्त्र रख दिया। उस अवस्था में धृष्टद्युम्न ने उनका शिरोच्छेद कर दिया। पाण्डव-पक्ष से यह अत्यन्त निन्दनीय कार्य हुआ। 63. नारायणास्त्रमोक्ष पर्वअपने पिता का वध सुनकर अश्वत्थामा क्रोध से भर गया और उसने नारायणास्त्र नामक एक विशेष हथियार का प्रयोग किया, उससे भीमसेन का अन्त ही हो गया होता, किन्तु कृष्ण ने भीमसेन को रथ से उतारकर नारायणास्त्र को एक प्रकार से विफल कर दिया। तब अश्वत्थामा ने आग्नेयास्त्र छोड़कर एक अक्षौहिणी सेना का संहार कर दिया, पर श्रीकृष्ण और अर्जुन पर उस शस्त्र का कोई प्रभाव नहीं हुआ। उस समय व्यास जी ने प्रकट होकर अश्वत्थामा को शिव और कृष्ण की महिमा बताई। इससे प्रभावित होकर अश्वत्थामा ने दोनों को प्रणाम किया। द्रोणपर्व के अन्त में एक अध्याय शिव के नमःस्तोत्र का है। कथा इस प्रकार है, जब द्रोण-युद्ध समाप्त हुआ तो अकस्मात व्यास जी वहाँ आ गये और अर्जुन ने कहा कि जब मैं युद्ध करता था तो अग्नि के समान त्रिशूलधारी एक महापुरुष को आगे चलता हुआ देखता था, जिस दिशा में वे जाते थे, उसी दिशा में शत्रु बिखर जाते थे। न तो वह महापुरुष पैरों से पृथ्वी का स्पर्श करता था और न हाथ से त्रिशूल ही छूता था। व्यास जी ने समाधान किया, “वे तो साक्षात भगवान शंकर ही थे। हे अर्जुन, प्रजापतियों में प्रथम जो तैजस पुरुष हैं, जो सब लोकों के ईश्वर और ईशान हैं, हे अर्जुन, तुमने उन्हीं शिव का दर्शन किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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