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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 168-353
अध्याय 195 में मनु-बृहस्पति संवाद के रूप में स्वभावाद और आत्मवाद का समन्वय किया गया है। शरीरी आत्मा जब आत्मकेन्द्र में आता है तो पंचभूत, पंचेन्द्रियां और उनके पांच गुण, ये सब उस केन्द्र में आ जाते हैं। उन्हीं के साथ शरीरी आत्मा इस देह में प्रतिष्ठित होता है। मनु द्वारा प्रतिपाद्य यह आर्य दृष्टिकोण था। उत्पत्ति, क्षय, सुख-दुःख, स्वीकृत-दुष्कृत, ये सब स्वभाव के धर्म हैं जो शरीरी आत्मा का स्पर्श नहीं करते। आत्मा के साथ मन की सत्ता अनिवार्य है। वही इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग कराता है। इन्द्रियां, मन, बुद्धि और आत्मा इनकी सत्ता स्वीकार करके क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का आस्तिक सिद्धान्त अस्तित्व में आया या विकसित हुआ। उसका किसी वाद से विरोध न था, और न वह किसी मत का निराकरण करता था। उसका दृष्टिकोण समन्वय का था। इस मत में शरीर या क्षेत्र की सत्ता, शरीरी आत्मा की सत्ता, मन, बुद्धि की सत्ता, काल, कर्म और देहान्तर की सत्ता, सबको स्वीकार करने का बुद्धिवादी दृष्टिकोण या समन्वयवादी दृष्टिकोण स्वीकार किया जा सकता है। यही मनु द्वारा प्रतिपादित मानवधर्म शास्त्र का दृष्टिकोण था। इस मत में भूतात्मा (पंचभूत), प्राणात्मा (पंच इन्द्रियां), प्रज्ञानात्मा (मन), विज्ञानात्मा (बुद्धि), अव्यक्तात्मा (शरीरी) पुरुष- इन पांचों कोटियों को स्वीकार किया जाता था। ऐसा ही अध्याय 197 में है।[1] इस मत में ज्ञान और ज्ञेय का पृथक् विवेचन मुख्य विषय था। ज्ञेय आत्मा है और उसके अतिरिक्त बुद्धि, मन, इन्द्रियां, विषय और भूत सब ज्ञान का क्षेत्र है। ज्ञान का क्षेत्र सगुण है। ज्ञेय अन्तरात्मा निगुण है। एक पक्ष में बुद्धि गुण-प्रधान होती है। दूसरे पक्ष में वही गुणों से ऊपर उठकर आत्मा का दर्शन करती है। एक प्रवृत्ति प्रधान या प्रकृति से होती है, दूसरी प्रवृत्ति पुरुष से होती है। राग से प्रकृति की ओर और विराग से ज्ञान की ओर गति होती है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अव्यक्तात् प्रसृतं ज्ञानं ततो बुद्धिस्ततो मनः।
मनः श्रोत्रादिर्युक्तं शब्दादीन्साधु पश्यति।। (197। 11) - ↑ रागवान्प्रकृतिं ह्येति। विरक्तो ज्ञानवान्भवेत्। 199।87
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