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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 6-39
महाभारत के 18 पर्वों में शान्ति पर्व का स्थान सबसे महत्त्वपूर्ण है। वह विस्तार में भी सबसे बड़ा है। इसमें तीन अवान्तर पर्व हैं। राजधर्म 1 से 128 अध्याय, आपद्धर्म पर्व 129 अध्याय से 167 अध्याय तक और मोक्ष धर्म 168 से 353 अध्याय तक है। इनमें भी मोक्ष धर्म पर्व के लगभग दो सौ अध्याय प्राचीन भारतीय दर्शन और धर्म की बहुविध साम्रगी की निधि हैं। अकेला नारायणी पर्व ही एक सहस्र श्लोकों में है, जिसमें पंचरात्र भागवत धर्म का सविस्तार वर्णन है। उससे पूर्व के कितने ही अध्यायों में कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, यदृच्छावाद, भूतवाद, योनिवाद आदि कितने ही मतों का जैसा वर्णन है वैसा अन्यत्र बौद्ध साहित्य में भी प्राप्त नहीं होता। जैसा हम कहेंगे, इन अध्यायों में प्राचीन भारत के धार्मिक इतिहास की तीन तहें सुरक्षित हैं। पहली तह में विभिन्न तत्त्व-चिन्तकों के पृथक-पृथक मत, उसके अनन्तर दूसरी तह में सांख्य आदि दर्शनों की सामग्री और तीसरी तह में शैव एवं पंचरात्र भागवतधर्मों की सामग्री है। शान्ति पर्व की शैली और शब्दावली महाभारत के अन्य पर्वों से विशिष्ट है। उस पर विशेष ध्यान देना होगा। तभी शान्ति पर्व में एवं विशेषतया मोक्ष धर्म में निगूढ़ अर्थों का विकास किया जा सकेगा। राजधर्म पर्व
कर्णाभिज्ञान
भारत-युद्ध में जो सगे-सम्बन्धी मारे गये थे उन्हें युधिष्ठिर आदि पाण्डवों ने हस्तिनापुर से बाहर गंगा के किनारे जलाञ्जलि दी। एक मास बाद युधिष्ठिर ने नगर में प्रवेश किया तब बहुत से वैदिक विद्वान और ऋषि-मुनि उनसे मिलने आये। उनमें नारद ने युधिष्ठिर से पूछा, “आपकी युद्ध में जीत हुई। अब आप प्रसन्न हैं?” इस सीधे सरल प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर ने कहा, “मेरे लिए यह जीत हार के समान हो गई है। मैं इससे बहुत दुःखी हूँ। पांच पुत्रों को खोकर द्रौपदी मुझसे क्या कहेगी? अभिमन्यु को खोकर मैं सुभद्रा को क्या मुख दिखलाऊंगा? मेरे मन को कचोटने वाली दूसरी बात यह है कि मां कुन्ती ने भी मुझसे यह बात छिपाई और पहले नहीं बताया कि कर्ण उसी का ज्येष्ठ पुत्र था, जो सूर्य से उत्पन्न हुआ था। उसके राधे पुत्र होने की बात कहानी मात्र थी। यदि मैं पहले जातना कि कर्ण मेरा बड़ा भाई है, तो मैं कभी रण में उसका वध नहीं होने देता। इसका मेरे चित्त में बहुत दुःख है। सुनता हूं, माता कुन्ती ने कर्ण को बहुत समझाया था कि हमारे विरुद्ध युद्ध न करे, पर उस सत्यवादी वीर ने दुर्योधन का साथ छोड़ना स्वीकार नहीं किया। केवल यही कहा कि मैं पांच पाण्डवों में से एक को छोड़कर शेष चार को न मारूंगा। ये सब बातें मुझे पहले ज्ञात न थीं। हां, अब मुझे याद आता है कि जब मैंने कर्ण को द्यूत सभा में देखा था तो मुझे उसके पैर कुन्ती के पैरों से मिलते हुए जान पड़े थे। कर्ण को देखकर मेरे मन का क्रोध शान्त हो जाया करता था। रणभूमि में उसके रथ के पहिये को पृथ्वी ग्रस लेती थी। कर्ण को यह शाप कैसे मिला? यह मैं जानना चाहता हूँ।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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