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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 43-51
तदनुसार सहस्रों शिल्पियों ने मिलकर सहस्र स्तंभों वाली, सौ द्वारपाली तोरणों से अलंकृत सभा का शीघ्र निर्माण कर दिया और राजा को उसकी सूचना दी। तब धृतराष्ट्र ने मन्त्र-मुख्य विदुर से कहा, “जाओ, मेरी आज्ञा से राजपुत्र युधिष्ठिर को शीघ्र ही यहाँ ले आओ। वह भाइयों के साथ यहाँ आकर इस विचित्र सभा को देखें और मन-बहलाव के लिए कुछ पांसों का खेल (सुहृद्-द्यूत) भी खेल लें।” यह सुनकर विदुर सन्नाटे में आ गए। उन्हें यह सब अच्छा न लगा और भाई से बोले, “हे राजन, मेरी इस कार्य के लिए जाने में रुचि नहीं है। तुम ऐसा न करो। मैं कुल के नाश से डर रहा हूँ। मुझे आशंका है कि द्यूत के फलस्वरूप तुम्हारे इन पुत्रों में अवश्य झगड़ा हो जायेगा।” धृतराष्ट्र ने उत्तर दिया, “हे विदुर, यदि दैव प्रतिकूल ने होते तो क्या मुझे स्वयं इस कलह का संताप न होता? ब्रह्म ने जो रच दिया है, सारा जगत वैसी ही चेष्टा में लगा है, स्वतंत्र नहीं है। इसलिए हे विदुर, मेरी आज्ञा से युधिष्ठिर के पास जाओ और उसे शीघ्र ही ले आओ।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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