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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 52-59
अगले दिन वे लोग सभा में गए, जहाँ खिलाड़ी जमा थे। बैठने पर पहले शकुनि ने कहा, “हे राजन, सभा जमी हुई है। सब लोग मन-बहलाव के लिए उत्सव के भाव से आये हैं। हे युधिष्ठिर, पांसे फेंककर खेलने का नियम रहे।” युधिष्ठिर ने कहा, “अक्षद्यूत पाप से भरा हुआ, दूसरों को ठगने का व्यापार है। क्षात्र-पराक्रम के अनुकूल नहीं है। नीति-धर्म भी द्यूत के पक्ष में नहीं है। तुम व्यर्थ उसकी बड़ाई करते हो। परवंचकता में जुआरी का जो मानदंड होता है, उसे कोई अच्छा नहीं समझता। हे शकुनि, इस कुमार्ग से हृदयहीन की भाँति हमें जीतने की इच्छा न करो।” शकुनि ने उत्तर दिया, “छल के समय भी जो पांसों की ठीक गणना कर ले, वही सच्ची विधि जानने वाला है। वही खिलाड़ी है, जो पांसों के अनुकूल-प्रतिकूल गिरने पर भी खिन्न न हो। जो द्यूत का जानकार है, वह महामति होता है, वही इसके उतार-चढ़ाव सह सकता है। पर पांसों के साथ दो दांव हैं, वे ही घातक हैं, वे ही कालरूप हैं, क्या तुम्हारा यही अभिप्राय है? यदि हां, तो हे युधिष्ठिर, शंका मत करो, हम लोग मिल कर खेलेंगे। दांव लगाओ, देरी न हो।” शकुनि के इस प्रकार वचन सुनकर युधिष्ठिर को फिर धर्म की याद आई और उन्होंने मानो अन्तिम पैंतरा चलते हुए कहा, “मुनिसत्तम असित देवल ने कहा है, “धूर्तों के साथ छल से खेलना पाप है। धर्म से ही युद्ध में जय मिलती है। धर्मपरायण होकर खेलना अच्छा है।’ स्त्रियां गाली-गलौज पर उतर आती हैं, किन्तु छल-छिद्र नहीं करतीं। युद्ध भी बिना कपट और शठता के ही होना चाहिए। यही सत्पुरुषों का व्रत है। जो धन यथाशक्ति ब्राह्मणों को अर्पित करने के लिए है, उसे ही शकुनि, दांव पर मत रखवाओ।” जुए के मार्ग में इतनी दूर तक पैर बढ़ाकर युधिष्ठिर ने जो बार-बार छल से बचने की माला जपी, उससे तड़़पकर शकुनि ने कहा, “हे युधिष्ठिर, जानकर अनजान के साथ लोक में जो व्यवहार करता है, क्या सर्वत्र उसमें कपट ही भरा रहता है? हम लोगों को तो इन व्यवहारों में कपट की गन्ध नहीं आती। यहाँ तक आकर यदि तुम अनजान बनकर कपट की दुहाई देते हो और मन में डरते हो तो खेलना छोड़ दो।” शकुनि के ये वचन ठीक निशाने पर लगे। युधिष्ठिर ने कहा, “मैंने व्रत किया है कि जो मुझे चुनौती देगा, उससे मैं मुंह न मोड़ूँगा। विधाता बलवान है। मैं भाग्य के हाथों में हूँ। तो कहो, कौन मेरे साथ खेलेगा और इस द्यूत में दांव का धनी-धोरी कौन बनेगा?” यह सुनते ही दुर्योधन ने चट कहा, “मेरा मामा शकुनि मेरे लिए खेलेगा, दांव के लिए रत्न और धन मैं दूंगा।” यह सुनकर युधिष्ठिर बोले, “तुम्हारी ओर से किसी दूसरे का खेलना मुझे नियम-विरुद्ध लगता है। पर तुम्हारी इच्छा! ऐसी ही हो।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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