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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 188-195
प्रलयग्रस्त जगत का वर्णन करते हुए मार्कण्डेय ने कहा, ‘‘उस एकार्णवी भूत अवस्था में मैंने एक विशाल वटवृक्ष की शाखा पर लेटे हुए एक बालक को देखा, जो स्वयं श्रीवत्सधारी नारायण थे। उन्होंने कहा, ‘‘हे मार्कण्डेय, तुम थक गए हो, तुम मेरे शरीर में विश्राम लो, मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। बालक के यह कहने पर मार्कण्डेय उसके मुख में प्रविष्ट हो गए। वहाँ उन्होंने उसके शरीर में जिस भौगोलिक क्षितिज का दर्शन किया, वह भारतवर्ष की जनपद और नगरों से भरी हुई पृथ्वी थी। वहाँ उन्होंने सीता, सिन्धु, विपाशा, चन्द्रभागा, शतद्रु, सरस्वती, गंगा, यमुना, चर्मण्वती, वेत्रवती, नर्मदा, गोदावरी, शोण, महानदी, कौशिकी, इन नदियों को और महेन्द्र, मलय, पारियात्र, विन्ध्य, गन्धमादन, मन्दराचल, मेरु, हिमालय और हेमकूट इन पर्वतों को देखा। मध्य एशिया की सीता (यारकन्द) नदी से लेकर दक्षिण की गोदावरी तक एवं मेरु या पामीर से दक्षिणा पूर्वी समुद्र-तट के मंदराचल तक का भौगोलिक क्षितिज मार्कण्डेय के इन वर्णन की पृष्ठभूमि में है। गुप्तकालीन सम्राटों ने जिस भू-भाग का पुनःउद्धार किया था वह भी लगभग इतना ही था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के महरौली-स्तम्भ-लेख में बाल्हीक तक के प्रदेश को युद्ध में जीतकर उसका उद्धार करने का स्पष्ट उल्लेख आया है। श्रीवत्सधारी नारायण यहाँ भागवत-धर्म के प्रतीक हैं, जहाँ गुप्त राजाओं के प्रभाव से भागवत-धर्म की पुनः स्थापना हुई। यही उस समय राष्ट्र और नगरों से आकीर्ण पृथ्वी थी, जो मार्कण्डेय के दृष्टि-पथ में आई (सराष्ट्रनगराकीर्णां कृत्सनां पश्यामि मेदिनीम्।) विष्णु की सार्वभौमिकता
विष्णु की इस लीला से चकित हुए मार्कण्डेय ने स्वभावतः उनका स्वरूप जानना चाहा। उत्तर में विष्णु ने जो कहा, वह ठेठ नारायण-धर्म का दृष्टिकोण है। एक शब्द में उसे हम विभूति योग कह सकते हैं, जिसका उल्लेख गीता के दशम अध्याय में आया है। इस प्रसंग का सारांश यही है कि जितने देव हैं, वे सब एक विष्णु की ही विभूतियाँ है। लगभग पाँच-छः सौ वर्षों से जो अनेक देवी-देवताओं का जमघट समाज में जुड़ गया था, उसको ठीक-ठिकाने लगाकर उसके भीतर से किसी दैव तत्त्व की सम्प्राप्ति की समाज को अनिवार्य आवश्यकता थी। वह कार्य भागवत धर्म ने विष्णु के सार्वभौमत्व को स्थापित कर पूरा किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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