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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
3. आरण्यक पर्व
अध्याय : 183
अरिष्टनेमि तार्क्ष्य अर्थात गुप्तकालीन गरुड़ध्वज वाले तार्क्ष्य का सरस्वती के साथ एक संवाद दिया गया है। इसमें तार्क्ष्य ने कल्याण का मार्ग पूछा। सरस्वती ने उत्तर में कहा, ‘‘जो नित्य स्वाध्यायशील है, ब्रह्म को जानता है, गो-दान, वस्त्र-दान, स्वर्ण-दान, वृषभ-दान करता है, जो अग्निहोत्र करता है, वह देवों के सुखप्रद लोकों में जाता है।’’ यह सद्गृहस्थ भागवतों का नूतन आदर्श था। सरस्वती को इस संवाद में कई बार ‘प्रज्ञा की देवी’ कहा गया है (प्रज्ञां च देवीं सुभगे विभार्षि), जो बौद्धों की नवीन देवी प्रज्ञा-पारमिता का स्मरण दिलाता है। वस्तुतः कुषाणकाल के लगभग जैन, बौद्ध और ब्राह्मण बुद्धि की अधिष्ठात्री एक देवी की उपासना करने लगे थे, जिसकी मूर्तियाँ भी लगभग उसी समय से मिलने लगती हैं। ब्राह्मण-साहित्य में सरस्वती और भारती की परम्परा वैदिक-काल से चली आती थी, किन्तु उपासना के लिए उसकी मूर्ति का प्रचार इसी युग में हुआ। जल-प्रलय की कथा इसके बाद युधिष्ठिर के प्रश्न के उत्तर में मार्कण्डेय ने वैवस्वत मनु के तप की और जल-प्रलय की कथा सुनाई। यह कथा वैदिक और ब्राह्मण-साहित्य में सुविदित थी, किन्तु यहाँ उस कथा की प्रस्तावना देकर महाभारत के प्रतिसंस्कर्त्ता पौराणिकों ने एक विशेष प्रयोजन सिद्ध किया है और कथा के झीने आच्छादन में अपने उस उद्देश्य को भी उन्होंने शब्दों में कह दिया है। यवन, शक, पुलिन्द, पुक्कस, आन्ध्र, शूद्र, आभीर आदि जातियों ने जो देश पर शासन किया था, उसके फलस्वरूप वर्णाश्रम-धर्म का लोप हो गया और सब जनता मानो शूद्र वर्ण की तरह आचरण करने लगी। इस स्थिति से समाज और राष्ट्र की रक्षा भागवत-धर्म के नेताओं ने की। उसी महान राजनैतिक और सामाजिक उथल-पुथल का मानों आँखों-देखा वर्णन यहाँ किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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