श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी22. विद्याव्यासंगी निमाई
अग्नि में फूँक देते हुए रघुनाथ ने कहा- ‘क्या बताऊँ भाई! गुरु जी ने एक ‘पंक्ति’ लगाने के लिये दी थी, वह मेरी समझ में ही नहीं आयी। दिनभर सोचते रहने पर अब समझ में आयी, उसे अभी गुरुजी को सुनाकर आया हूँ, इसीलिये भोजन बनाने में देर हो गयी।’ जल्दी से निमाई ने कहा- ‘जरा हम भी तो उस पंक्ति को सुनें। पंक्ति क्या थी आफत थी, जो आप-जैसे पण्डित की समझ में इतनी देर में आयी। जरूर कोई बहुत ही कठिन होगी। मैं भी उसे एक बार सुनना चाहता हूँ।’ रघुनाथ ने वह पंक्ति सुना दी। थोड़ी देर सोचने के अनन्तर निमाई हँस पड़े और बोले- ‘बस, इसी छोटी-सी ‘पंक्ति’ को इतनी देर सोचते रहे, इसमें है ही क्या?’ जरा आवेश के साथ रघुनाथ जी ने कहा- ‘अच्छा, कुछ भी नहीं है तो तुम्हीं लगाकर बताओ।’ इतना सुनते ही निमाई ने बड़ी ही सरलता के साथ पंक्ति के पूर्वपक्ष की स्थापना की। फिर यथावत एक-एक शंका का समाधान करते हुए उसे बिलकुल ठीक लगा दिया। निमाई के मुख से उस इतनी कठिन पंक्ति को खिलवाड़ की भाँति हँसते-हँसते लगाते देख रघुनाथ के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उन्हें जो शंका थी, वह प्रत्यक्ष आ उपस्थित हुई। उनकी सभी आशा पर पानी फिर गया। भोजन बनाना भूल गये। निमाई उनके मनोभाव को ताड़ गये कि रघुनाथ कुछ लज्जित हो गये हैं, इसलिये यह कहते हुए कि ‘अच्छा आप भोजन बनावें फिर मिलेंगे।’ पाठशाला की ओर चले गये। रघुनाथ ने जैसे-तैसे भात तो बनाया, किन्तु उनके हृदय में निमाई की बुद्धि के प्रति डाह होने के कारण उन्हें भोजन में आनन्द नहीं आया, जैसे-तैसे भोजन करके वे पाठशाला में आये। अब निमाई की अवस्था सोलह वर्ष की हो चुकी थी, उनके घुँघराले लम्बे-लम्बे बाल, तेजस्वी चेहरा, सुगठित शरीर, बड़ी-बड़ी सुहावनी आँखें, मिष्ट-भाषण और मन्द-मन्द मुस्कान देखने वाले को स्वतः ही अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी। वे सभी से दिल खोलकर मिलते और खूब घुल-घुलकर बातें करते। उनके मिलने वाले परस्पर में सभी यही समझते कि निमाई जितना अधिक स्नेह हमसे करता है, उतना किसी दूसरे से शायद ही करता हो। इसका कारण यह था कि उनके हृदय में किसी भी प्राणी के प्रति द्वेष नहीं था। जिसके हृदय में प्राणिमात्र के प्रति सम्मान है, उसे सभी अपना सगा-सम्बन्धी समझने लगते हैं। इसीलिये निमाई के बहुत अधिक स्नेही थे। |