श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी177. श्री चैतन्य–शिक्षाष्टक
‘बूँद-बूँद से घट भरे, टपकत रीतो होय।’ बस, प्रत्येक पाठक हमारे प्रति थोड़ा भी प्रेम प्रदर्शित करने की कृपा करें तो हमारा यह रीता घड़ा परिपूर्ण हो जाय। क्या उदार और प्रेमी पाठक इतनी भिक्षा हमें दे सकेंगे? यह हम हृदय से कहते हैं, हमें धन की या और किसी सांसारिक उपभागों की अभी तो इच्छा प्रतीत होती नहीं। आगे की वह साँवला जाने। अच्छे–अच्छों को लाकर फिर उसने इसी मायाजाल में फँसा दिया है, फिर हम-जैसे कीट-पतंगों की तो गणना ही क्या ! उसे तो अभी तक देखा ही नहीं। शास्त्रों से यह बात सुनी है कि प्रेमी भक्त ही उसके स्वरूप हैं, इसीलिये उनके सामने अकिंचन भिखारी की तरह हम पल्ला पसारकर भीख माँग रहे हैं। हमें यह भी विश्वास है कि इतने बड़े दाताओं के दरवाजों से हम निराश होकर न लौटेंगे, अवश्य ही हमारी झोली में वे कुछ-न-कुछ तो डालेंगे ही। भीख मांगने वाला कोई गीत गाकर या कुछ कहकर ही दाताओं के चित्त को अपनी ओर खींचकर भीख माँगता है। अत: हम भी चैतन्योक्त इन आठ श्लोकों को ही कहकर पाठकों से भीख माँगते हैं। (1) जो चित्तरूपी दर्पण के मैल को मार्जन करने वाला है, जो संसाररूपी महादावाग्नि को शान्त करने वाला है, प्राणियों के लिये मंगलदायिनी कैरव चन्द्रिका को विरण करने वाला है, जो विद्यारूपी वधू का जीवन-स्वरूप है और आनन्दरूपी समुद्र को प्रतिदिन बढ़ाने ही वाला है उस श्रीकृष्ण संकीर्तन की जय हो, जय हो ! श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे ! |