श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी176. महाप्रभु के वृन्दावनस्थ छ: गोस्वामिगण
कुछ प्रेम युक्त रोष के स्वर में चौबिन ने कहा– ‘साधु बाबा ! इसकी यह सब करतूत मुझे पहले से ही मालूम है। एक जगह रहना तो यह जानता ही नहीं, यह बड़ा निर्मोही है, कोई इसका सगा नहीं !’ भला, जिस यशोदा ने इसका लालन-पालन किया, खिला-पिलाकर इतना बड़ा किया, उसे भी बटाऊ की तरह छोड़कर चला गया। मुझसे भी कहता था– ‘मेरा यहाँ मन नहीं लगता।’ मैंने भी सोच लिया– ‘मन नहीं लगता तो मेरी बला से। जब तुझे ही मेरा मोह नहीं, तो मुझे भी तेरा मोह नहीं। भले ही तू साधू के साथ चला जा।’ ऐसा कहते-कहते आँखों में आंसू भरकर उसने मदन मोहन को सनातन जी के साथ कर दिया। ऊपर से तो वह ऐसी बातें कह रही थी, किन्तु उसका हृदय अपने मदन मोहन के विरह से तड़प रहा था। सनातन जी मदन मोहन को साथ लेकर यमुना के किनारे आये। अब मदन मोहन के रहने के लिये उन्होंने सूर्यघाट के समीप एक सुरम्य टीले पर फूँस की झोपड़ी बना ली और उसी में वे मदन मोहन जी की पूजा करने लगे। अब वे घर-घर से आटे की चुटकी मांग लाते और उसी की बिना नमक की मधुकरी बनाकर मदन मोहन को भोजन कराते। एक दिन मदन मोहन ने मुँह बनाकर कहा– ‘साधु बाबा ! ये बिना नमक की बाटियाँ हमसे तो खायी नहीं जातीं। थोड़ा नमक भी किसी से मांग लाया करो।’ सनातन जी ने झुँझलाकर कहा– ‘यह इल्लत मुझसे मत लगाओ, खानी हो तो ऐसी ही खाओ, नहीं अपने घर का रास्ता पकड़ो।’ मेरे पास तो ये ही सूखे टिक्कड़ हैं, तुम्हें घी-चीनी की चाट थी तो किसी धनिक के यहाँ जाते, मुझ भिक्षुक के यहाँ तो ये ही सूखे टिक्कड़ मिलेंगे। तुम्हारे गले के नीचे उतरे चाहे न उतरे, मैं किसी धनिक के पास घी-बूरा मांगने नहीं जाऊँगा। थोड़े यमुना-जल के साथ सटक लिया करो। मिट्टी भी तो सटक जाते थे।’ बेचारे मदनमोहन अपना सा मुंह बनाये चुप हो गये। उस लँगोटीबंद साधु से वे और कह ही क्या सकते थे। |