श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
166. श्री कृष्णान्वेषण
सखि! इन लताओं से पूछो। देखे, ये क्या कहती है?’ यह कहकर आप लताओं को सम्बोधन करके उसी प्रकार अश्रुविमोचन करते हुए गद्गद कण्ठ से करुणा के साथ पूछने लगे–
हे मालति ! हे जाति ! जूथके ! सुनि हित दे चित।
मन-हरन मन-हरन लाल गिरिधरन लखे इत।।
हे केतकि ! इततें कितहूँ चितये पिय रूसे।
कै नँदनन्दन मन्द मुसुकि तुमरे मन मूसे।।
फिर स्वत: ही कहने लगे– ‘अरी सखियों ! ये तो कुछ भी उत्तर नहीं देतीं। चलो, किसी और से ही पूछें।’
यह कहकर आगे बढने लगे। आगे फलों के भार से नवे हुए बहुत-से वृक्ष दिखायी दिये। उन्हें देखकर कहने लगे–‘सखि! ये वृक्ष तो अन्य वृक्षों की भाँति निर्दयी नहीं जान पडते। देखो, सम्पत्तिशाली होकर भी कितने नम्र हैं। इन्होंने इधर से जाने वाले प्यारे का अवश्य ही सत्कार किया होगा। क्योंकि जो सम्पत्ति पाकर भी नम्र होते हैं, उन्हें कैसा भी अतिथि क्यों न हो, प्राणों से भी अधिक प्रिय होता है। इनसे प्यारे का पता अवश्यक लग जायगा। हाँ, तो मैं ही पूछती हूँ’। यह कहकर वे वृक्षों से कहने लगे–
हे मुत्ताफल ! बेल धरे मुत्ताफल माला।
देखे नैन-बिसाल मोहना नँदके लाला।।
हे मन्दार ! उदार बीर करबीर ! महामति।
देखे कहूँ बलवीर धीर मन-हरन धीरगति।।
फिर चन्दन की ओर देखकर कहने लगे– ‘यह बिना ही मांगे सबको शीतलता और सुगन्ध प्रदान करता है, यह हमारे ऊपर अवश्य दया करेगा, इसलिये कहते है–
हे चन्दन ! दुखदन्दन ! सबकी जरन जुडावहु।
नँदनन्दन, जगबन्दन, चन्दन ! हमहि बतावहु।।
|