अक्षरों का अनुवाद कर देना तो हमारी प्रकृति के प्रतिकूल है, इसके लिये तो हम मजबूर हैं किन्तु कैसे भी क्यों न करें इन्हीं महानुभावों के आश्रय से इस दुर्गम पथ को पार कर सकेंगे। इसलिये श्री चैतन्य देव के दिव्योन्माद के वर्णन करने के पूर्व अति संक्षेप में हम पाठकों को यह बता देना आवश्यक समझते हैं कि ये प्रेम के भाव, महाभाव तथा विरह की दशा कितनी होती है और इनका वास्तविक स्वरूप क्या है, इस विषय पर मधुर रति के उपासक वैष्णवों ने अनेक ग्रन्थ लिखे है और विस्तार के साथ इन सभी विषयों का विशदरूप से वर्णन किया गया है, उन सबको यहाँ बताने के लिये न तो इतना स्थान ही है और न हममें इतनी योग्यता ही है। हम तो विषय को समझने के लिये बहुत ही संक्षेप में इन बातों का दिग्दर्शन करा देना चाहते हैं जिससे पाठकों को महाप्रभु की प्रेमोन्दमादकारी दशा को समझाने में सुगमता हो। वैसे इन दशाओं को समझकर कोई प्रेमी थोड़े ही बन सकता है, जिसके हृदय में प्रेम उत्पन्न होता है उसकी दशा अपने आप ही ऐसी हो जाती है। पिंगल पढ़कर कोई कवि नहीं बन सकता। स्वाभाविक कवि की कविता अपने आप ही पिंगल के अनुसार बन जाती है। इसलिये इन बातों का वर्णन प्रेम प्राप्त करने के निमित्त नही, किंतु प्रेम की दशा समझने के लिये करते हैं।