श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी160. जगदानन्द जी की एकनिष्ठा
स्वरूप गोस्वामी चुपचाप सुनते रहे। प्रभु ने फिर उसी प्रकार रोष के स्वर में कहा- ‘क्यों रे गोविन्द ! तुझे यह सूझी क्या? तैंने क्या सोचा कि मैं गद्दा-तकिया लगाकर विषयी पुरुषों की भाँति सोऊँगा? तू ठीक ठीक बता तुझे पैसे कहाँ मिले? यह वस्त्र किससे माँगा? सिलाई के दाम कहाँ से आये?’ गोविन्द ने धीरे से सिर नीचा किये ही उत्तर दिया- ‘प्रभो ! जगदानन्द पण्डित मुझे इन्हें दे गये हैं और उन्हीं की आज्ञा से मैंने इस बिछा दिया है।’ जगदानन्द जी का नाम सुनकर प्रभु कुछ सहम गये। उन्हें इसके उपयोग न करने का प्रत्यक्ष परिणाम आँखों के सामने दीखने लगा। उनकी दृष्टि में जगदानन्द जी की रोष भरी दृष्टि साकार होकर नृत्य करने लगी। महाप्रभु फिर कुछ भी न कह सके। वे सोचने लगे कि अब क्या कहूँ, उनका रोष कपूर की तरह एकदम न जाने कहाँ उड़ गया। हृदय के भावों के प्रवीण पारखी स्वरूप गोस्वामी महाप्रभु के मनोभाव को ताड़ गये। इसीलिये धीरे से कहने लगे- ‘प्रभो ! हानि ही क्या है, जगदानन्द जी को कष्ट होगा, इन्होंने प्रेमपूर्वक बड़े परिश्रम से इसे स्वयं बनाया है। सेमल की रूई है, फिर आपका शरीर भी तो अत्यंत ही निर्बल है, मुझे स्वयं इसे केले के पत्तों पर पड़ा हुआ देखकर कष्ट होता है। अस्वस्थावस्था में गद्दे का उपयोग करने मे तो मुझे कोई हानि प्रतीत नहीं होती। रुग्णावस्था को ही आपत्तिकाल कहते हैं और आपत्तिकाल में नियमों का पालन न हो सके तो कोई हानि भी नहीं। कहा भी है, ‘आपत्तिकाले मर्यादा नास्ति।’ प्रभु ने धीरे-धीरे प्रेम के स्वर मेें स्वरूप गोस्वामी को समझाते हुए कहा- ‘स्वरूप ! तुम स्वयं समझदार हो। तुम स्वयं सब कुछ सीखे हुए हो, तुम्हें कोई सिखा ही क्या सकता है। तुम सोचो तो सही, यदि संन्यासी इसी प्रकार अपने मन को समझाकर विषयों में प्रवृत्त हो जाय तो अन्त में वह धीरे धीरे महाविषयी बनकर पतित हो जायेगा। विषयों का कहीं अन्त ही नहीं। एक के पश्चात् दूसरी इच्छा उत्पन्न होती जाती है। जहाँ एक बार नियम से भ्रष्ट हुए वहाँ फिर नीचे की ओर पतन ही होता जाता है। |