श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी143. स्वामी प्रकाशानन्द जी मन से भक्त बने
प्रभु ने कहा- 'कहेंगे क्या? उन्होंने स्वयं की है, हृदय की गति की कोई रोक सकता है? जगत नहीं है हम ब्रह्म ही हैं, ये मस्तिष्क के विचार हैं, उनके हृदय तो पूछिये। वे स्वयं कहते हैं- सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम्। चाहे जीव-ब्रह्म में भेद न हो, तो भी हे नाथ! मैं तुम्हारा हूँ तुम स्वयं मेरे नहीं हो, 'समुद्र की तरंगें' तो सब कहते हैं, किन्तु तरंगों का समुद्र ऐसा कोई नहीं कहता।' यह उन महापुरुष के वाक्य हैं जो जीवन भर जीव-ब्रह्म की एकता को ही सिद्ध करते रहे थे।' आश्चर्य के सहित प्रकाशानन्द जी ने कहा- 'यह तो आचार्य का विनोद है, जैसे यहाँ कल्पित जगत है, वैसे ही व्यवहार में उन्होंने यह बात की दी। असल में जब जगत का अस्तित्व ही नहीं तो कैसी विनय और कैसी प्रार्थना? सदा अपने को ब्रह्म ही समझते रहने का अभ्यास करते रहना चाहिये।' मत्स्यादिभिरवतारैरवतारवता सदा वसुधाम्। संसार को त्रिकाल में भी सत्य न मानने वाले भगवान शंकराचार्य कहते हैं- आप मत्स्यादि अवतार धारण करके सदा पृथ्वी का परिपालन करते रहते हैं। हे प्रभो! संसार तापों से सन्तप्त हुआ मैं आपकी शरण आया हूँ, आप मेरी रक्षा करें। यह सच्चे हृदय की आावाज है।' प्रकाशानन्द जी ने कहा- 'यथार्थ में तो यह जगत असत्य ही है ओर जीव ही ब्रह्म है। किन्तु जो लोग इसे नहीं समझते और असत्य जगत को ही सत्य समझते हैं, उनके लिये जैसे भगवान शंकर ने संसार की व्यावहारिक सत्ता मानी है, उसी प्रकार यह व्यावहारिक प्रार्थना है। वैसे तो मुक्ति ही जीव का चरम लक्ष्य है और भ्रम दूर होते ही इस अज्ञान का नाश हो जाता है और अज्ञान के नाश होते ही जीव ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। हो क्या जाता है उसे अपने असली स्वरूप का बोध हो जाता है।' |