श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी143. स्वामी प्रकाशानन्द जी मन से भक्त बने
प्रकाशानन्द जी ने कहा- ‘हाँ, यह तो सत्य है कि श्रीमदभागवत को भगवान व्यास देव ने सभी शास्त्रों का सार लेकर बनाया है। श्री नारद जी के उपदेश से उन्होंने भगवान की लीलाओं का वर्णन करने से परम शान्ति भी प्राप्त की है और आत्माराम मुनियों तक के लिये उन्होंने ग्रन्थ के आदि में भगवत-भक्ति करते रहने का संकेत कर के उसका कारण बताया है-
अर्थात 'भगवान गुणों में दिव्यता ही ऐसी है कि कैसे भी अज्ञान रहित आत्माराम मुनि क्यों न हों, वे भी भगवान की अहैतु की भक्ति करते ही है। 'इस बात को मैं मानता हूँ, किन्तु भगवान शंकराचार्य जी ने जो एक दम सविशेष ब्रह्म को गौण बताकर और परम साध्य निर्विशेष ब्रह्म को ही माना है यह क्यों? यही मेरी शंका है।' प्रभु ने कहा- 'भगवान शंकराचार्य श्रीमद्भागवत को भी यथाविधि जानते थे, भागवत के प्रति उनकी परम श्रद्धा थी। इस बात को भी जानते थे कि श्रीमद्भागवत व्यास देव जी द्वारा प्रकट हुआ और उसके प्रतिपाद्य सविशेष सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ही हैं। फिर भी उन्होंने निर्विशेष ब्रहा को ही अपने भाष्य में प्रधानता देते हुए उसे ही चरम लक्ष्य माना है! यह उनकी महानता ही है। महान पुरुषों के सिवा ऐसा साहस कोई दूसरा नहीं कर सकता। उन्होंने लोक कल्याण के ही निमित्त ऐसा किया है। प्रकाशानन्द जी ने कहा- 'सूत्रों के अर्थ का अनर्थ करने में कौन-सा लोककल्याण है?' प्रभु ने धीरे से कहा- 'भगवन! अर्थ कैसा और अनर्थ कैसा? ये तो सब बुद्धि के विकार हैं। असली पदार्थ कहीं शब्दों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है या उसकी सिद्धि तर्क के द्वारा की जा सकती है? असली पदार्थ तो अनुभवगम्य हैं। किसी पद का कुछ अर्थ लगा लें, सभी ठीक हैं। अर्थ लगाने में बुद्धिचातुर्य के सिवा और है ही क्या? अर्थ, लगाना, व्याख्यान करना, भाष्य और पुस्तकों की रचना करना यह सब लौकिकी बुद्धि का काम है, इससे मुक्ति थोड़े ही मिल सकती है? केवल लोगों का मनोरंजन करना है।' प्रकाशानन्द जी ने कहा- 'हां, यह बताओ कि भगवन शंकर ने क्या सोचकर जगत को एकदम उड़ा दिया और निर्विशेष ब्रह्म को ही परमसाध्य तत्त्व माना?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 1/7/10