श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी143. स्वामी प्रकाशानन्द जी मन से भक्त बने
पैर पकड़े अत्यन्त ही कातर वाणी से रोते-रोते उन महाराष्ट्रीय सज्जन ने कहा- 'प्रभो! मैंने सारा आयोजन तो केवल आपके ही लिये किया है। आप न पधारेंगे तो मेरा सभी व्यर्थ हो जायगा। आप इस दीन-हीन कंगाल के ऊपर कृपा अवश्य करें और अपनी पद-धूलि से इस अधम के सदन को पावन कर इसे कृतार्थ करें। उन सज्जन की प्रार्थना का सभी ने समर्थन किया! भक्तवत्सल प्रभु सहमत हो गये और वे चलने के लिये तैयार हुए। प्रभु सनातन जी के कन्धे पर हाथ रखे हुए थे। पीछे-पीछे चन्द्रशेखर, तपन मिश्र तथा दो-चार भक्त और चल रहे थे। घर के दरवाजे पर पहुँचकर प्रभु ने सनातन जी के कन्धें से हाथ हटा लिया, वे नीची दृष्टि किये हुए धीरे-धीरे धर में पहुँचे। सेवक जल लेकर फौरन प्रभु के पैरों को धोने के लिये बढ़ा। प्रभु ने संकोच से पैरों को खींचते हुए स्वयं ही पैर धो लिये और वहीं अस्त-व्यस्त भाव से मोरी के पास ही कीच में बैठ गये। संन्यासी-मण्डली में सन्नाटा छा गया। शास्त्रार्थ करना सब भूल गये। सभी एकटक भाव से प्रभु की ओर देखने लगे। तीस-बत्तीस वर्ष की अवस्था का एक परम तेजस्वी रूपलावण्य युक्त युवक संन्यासी बिना किसी दिखावे के चुपचाप मोरी के पास बैठ गया है, इस बात से सभी को परम आश्चर्य हुआ। प्रभु का शरीर बड़ा ही सुकुमार था, उनके दाढ़ी-मूंछें बहुत ही कम निकली थीं, वे एक दम मुड़ी हुई थीं, इसलिये देखने में वे सोलह वर्ष के-बालक प्रतीत होते थे। उनके गुलाब की पंखुडि़यों के समान दो छोटे-छोटे अरुण रंग के समान ओष्ठ दूर से ही अपनी गाढ़ी लालिमा के कारण चमक रहे थे। प्रभु बिना किसी की ओर देखे चुपचाप सिर झुकाये हुए बैठे थे। उपस्थित सभी संन्यासी कोई उंगली के इशारे से, कोई भृकुटी के संकेत से, कोई बहुत ही हल की आवाज से प्रभु के ही सम्बन्ध में कुछ कहने लगे। प्रकाशानन्द जी इनके तेज, रूप-लावण्य, नम्रता, शालीनता और प्रभाव को ही देखकर समझ गये कि ये ही महाप्रभु चैतन्य देव हैं। किन्तु सबके सामने अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखने के निमित्त उन्होंने गृहपति उन महाराष्ट्रीय सज्जन से पूछा- 'ये स्वामी जी कहाँ से आये हैं? उन्होंने धीरें से कहा- 'ये वे ही बंगाली स्वामी जी हैं, जिनके सम्बन्ध में मैंने आपसे कहा था।' |