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श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
139. रूप की विदाई और प्रभु का काशी-आगमन
रूप! यही हाल कांचन का है पृथ्वी का नाम है वसुन्धरा। वसु कहते हैं रत्नों को। इस पृथ्वी में असंख्यों रत्न भरे पड़े हैं। इस पृथ्वी में सात द्वीप हैं, सात समुद्र हैं, समुद्रों में असंख्यों रत्न भरे पड़े हैं, परन्तु सप्तद्वीप वाली पृथ्वी का आधिपत्य पाकर भी मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती, वह तीनों लोकों का स्वामित्व चाहता है, त्रिलोकेश होने पर चौदह भुवनों के आधिपत्य की इच्छा रखता है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का स्वामित्व लाभ करने पर भी शान्ति नहीं तब दस-बीस गांव या हजार-पांच-सौ गांवों का आधिपत्य या स्वामित्व लाभ करके जो अपने को सुखी बनाना चाहता है, वह कितना भारी मूर्ख है। तुम ध्यान पूर्वक देखो, सोने में और मिट्टी में क्या भेद है, जैसे पृथ्वी में से सफेद मिट्टी, पीली मिट्टी, हरी मिट्टी और काली मिट्टी स्थान भेद से निकलती है वैसे ही सोना-चांदी भी पीली और सफेद मिट्टी ही है। तुमने उसमें श्रेष्ठपना का भाव स्थापित कर रखा है तो वह श्रेष्ठ है। स्वयं ही तुमने उसे श्रेष्ठ बनाया है और फिर स्वयं ही उसकी प्राप्ति के लिये पागल बनकर प्रयास कर रहे हो। छाया का तुमसे अलग-भिन्न अस्तित्व नहीं। छाया तुम्हारे शरीर की ही है, अब तुम भ्रमवश उस छाया को पकड़ने दौड़ो, तो कितना भी प्रयास क्यों न करो, छाया तुम्हारे हाथ कभी भी न आवेगी। भला, पीछे दौड़ने से कहीं छाया पकड़ी जा सकती हैं? छाया का अस्तित्व तो तुमने पृथक मान लिया है, जब तुम छाया को अपनी ही समझकर छोड़कर भागो, तो फिर वह तुम्हारा पीछा करेगी। तुम्हें छोड़कर वह जा ही कहाँ सकती है। मेरी बात को समझे?'
रूप ने धीरे से कहा- 'हाँ, प्रभो! कुछ-कुछ समझा' यही कि वास्तव में सोने में न तो श्रेष्ठत्व है और न मिट्टी में कनिष्ठत्व। श्रेष्ठतव-कनिष्ठत्व हमारे ही हृदय में है। जिसे जब चाहें छोटा मान लें और जब मानना चाहें तब बड़ा मान लें।
प्रभु ने कहा- 'हाँ, ठीक है। अच्छा, इसे यों समझो। जैसे तुम अब तक रूपये को ही श्रेष्ठ मानते थे। उसी की प्राप्ति के लिये तुम हुसैनशाह के दरबार में रहते थें। हुसैनशाह जाति का यवन था, तुम ब्राह्मण थे। वह स्वामिद्रोही कृतध्न था, तुम धर्म पूर्वक जीवन-निर्वाह करने वाले थे। वह मूर्ख था, तुम पण्डित थे। वह प्रमादी था, तुम जागरूक थे। वह अधर्मी था, तुम धर्मात्मा थे। सभी बातों में वह तुमसे हीन था, तुम उससे श्रेष्ठ थे। किन्तु तुम उसके बराबर सम्पत्तिशाली नहीं थे। तब तक तुम धन-सम्पत्ति को ही सर्वश्रेष्ठ सुख का साधन समझते थे। इसीलिये अपनी कुलीनता, विद्वत्ता, धार्मिकता, जागरूकता आदि सभी को तुच्छ समझकर उस मूर्ख के सामने सदा थर-थर काँपते हुए डरे-से खड़े रहते थे। अब जब तुम्हें पता चल गया कि धन-सम्पत्ति में सच्चा सुख नहीं है, तब जो धन-सम्पत्ति तुमने पसीने की जगह खून बहाकर पैदा की थी, उसे भक्तिमार्ग में प्रवेश करते ही मिट्टी की तरह लुटाकर चले आये क्यों ठीक है न?'
धीरे से रूप जी ने कहा- 'हाँ प्रभो! वे रूपये मुझे भार-से मालूम पड़ते थे, एक दिन में ही जैसे-तैसे मैंने उन्हें लुटा-पुटाकर किसी तरह अपना पिण्ड छुड़ाया।'
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