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श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
137. महाप्रभु वल्लभाचार्य
महाप्रभु का जन्म वैशाख कृष्णपक्ष 11 संवत 1535 (शाके 1400)- में रात्रि के समय हुआ था। पाँच वर्ष की अवस्था में पिता ने इनका यज्ञोपवीत-संस्कार किया। तभी से वेद-शास्त्रों की शिक्षा पाने लगे। जब ये ग्यारह वर्ष के थे तभी इनके पूज्य पिता परलोकवासी हो गये। तब विद्यासागर की राजसभा में पण्डितों से शास्त्रार्थ करके विजय-लाभ किया और आचार्यपदवी प्राप्त की। विद्यानगरके महाराज की ओर से आपका अत्यधिक सम्मान किया गया। इससे इनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी। फिर आपने अपने बहुत-से अनुयायियों के साथ विद्यानगर से कन्याकुमारी, पण्ढरपुर आदि स्थानों की यात्रा की। पण्ढरपुर से आ नासिक, त्रयम्बक, नर्मदातट, ओंकारेश्वर, माहिष्मती, उज्जैनी, सिद्धवट, चैद्यपुर, दतिया, ग्वालियर, धौलपुर आदि स्थानों में अपने प्रतिपक्षियों को परास्त करते हुए और राज सभाओं में सम्मान प्राप्त करते हुए मथुरा होकर गोकुल पधारे। वहीं आपको भक्ति मार्ग को प्रकट करने के लिये भगवान की आज्ञा प्राप्त हुई और स्वप्न में भगवान ने इन्हें एक गद्यात्मक मंत्र का उपदेश किया, जिसके द्वारा जीवों का ब्रह्म के साथ सम्बन्ध किया जाता है। यहीं पर कुछ शिष्य आपके शरणा पन्न हुए और आप यहीं रहकर शास्त्रप्रणयन करते रहे। इसके अनन्तर आपने सम्पूर्ण व्रज के तीर्थोंकी यात्रा की। फिर आप भक्ति का प्रचार करने के निमित्त दक्षिण की ओर गये और वहाँ गुजरात, काठियावाड़ तथा सिन्ध के अनेक प्रसिद्ध-प्रसिद्ध नगरों में जाकर आपने पण्डितों से शास्त्रार्थ किया और भक्तिमार्ग का जोरों से प्रतिपादन किया। वहाँ इनके पाण्डित्य की सर्वत्र ख्याति हो गयी और, हजारों सुनार, भाटिया तथा धनी-मानी पुरुष इनके शिष्य हो गये। भेंट-पूजा भी यथेष्ट आने लगी और गुजरात तथा काठियावाड़ के भावुक लोगों ने इनका बड़ा ही भारी सत्कार किया। दक्षिण की यात्रा समाप्त करके आपने उत्तर और पूर्व दिशा के तीर्थों की यात्रा की।
कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, ऋषिकेश, टिहरी, गंगोत्री, केदारनाथ, बदरीनाथ आदि उत्तर के तीर्थों में होते हुए फिर लौटकर हरिद्वार आ गये आप नैमिषारण्य आदि तीर्थों में दर्शन करते हुए जगन्नाथ जी के दर्शनों के लिये गये। जगन्नाथजी से दक्षिणके पथ से महेन्दीपर्वत पर परशुराम जी के दर्शन करते हुए फिर अपने ग्राम अग्रहार में आ गये। कुछ काल अग्रहार में रहकर आचार्य ने दूसरी बार भारत-यात्रा करने का विचार किया। इसलिये आप मंगलप्रस्थ विद्यासागर, लोहगढ़ होते हुए पण्ढपुर आये। पण्ढपुर में आकर इन्होंने भगवान विट्ठलनाथ जी के दर्शन किये। अब तक ये दण्ड, मेखला, जटा, कृष्णाजिन आदि सभी ब्रह्मचारियों के चिह्नों को धारण करते थे और ब्रह्मचारी वेश में रहते थे। यहीं पर भगवान ने इन्हें विवाह करने की आज्ञा दी। इन्होंने भगवान की आज्ञा को स्वीकार कर लिया। यहाँ से फिर आप गुजरात-काठियावाड़ की यात्रा करते हुए और अपने शिष्य-सेवकों को भक्तिमार्ग का उपदेश करते हुए पुष्कर होते हुए व्रज में पधारे। गोवर्धन में गोवर्धननाथ जी (गोपाल जी)-का प्राकट्य हुआ था। वहाँ उनकी सेवा-पूजा में इन्होंने योग दिया और श्री मन्माधवेन्द्रपुरी जी को ही वहाँ की सेवा का सम्पूर्ण भार सौंपा। श्री नाथ जी की प्रेरणा से ठाकुर पूरणमल ने 1556 श्री गोवर्धन नाथ जी का मन्दिर बनवाना आरम्भ किया। व्रजमण्डल से चलकर फिर आपने उत्तरके तीर्थों की यात्रा की और दूसरी बार फिर जगन्नाथ जी की यात्रा करके काशी जी में आकर रहने लगे।
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