श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी105. राय रामानन्द से साधन-सम्बन्धी प्रश्न
बस, सब कुछ छोड़कर वृन्दावन वास करना ही जीव का अन्तिम निवास स्थान है। वृन्दावन को परित्याग करके एक पैर भी कहीं अन्यत्र न जाना चाहिये’- ‘वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति।’ -बस राधा-मुरलीधर का ध्यान करते रहना चाहिये और वृन्दावन को न छोड़ना चाहिये- प्रभु ने पूछा- ‘आप श्रवणों में सर्वश्रेष्ठ श्रवणीय क्या समझते हैं?’ राय ने कहा- ‘श्रीकृष्ण! गोविन्द! हरे! मुरारे! ‘यह सम्पूर्ण श्रवणों का सार है। जिसने इसे यथावत रीति से सुन लिया फिर उसके लिये कुछ श्रवण करना शेष नहीं रह जाता।’ प्रभु ने पूछा- ‘आप उपासनाओं में सर्वश्रेष्ठ उपासना किसे समझते हैं?’ राय ने कहा- ‘युगल सरकार के सिवा और उपासना की ही किसकी जा सकती है। असल में तो वृन्दावन विहारी ही परम उपास्य हैं। शक्ति से वे पृथक हो ही नहीं सकते।’ प्रभु ने पूछा- ‘आप भक्ति और मुक्ति में किसे अधिक पसन्द करते हैं?’ राय ने कहा- ‘प्रभो ! मुक्ति के नीरस फल को तो कोई विचारप्रधान दार्शनिक पुरुष ही पसन्द करेगा। मुझे तो प्रभु के पादपपद्मों में निरन्तर लोट लगाते रहना ही सबसे अधिक पसन्द है। मैं अमृत के सागर में जाकर अमृत बनना नही चाहता। मैं तो उसके समीप बैठकर उसकी मधुरिमा के रसास्वादन करने को ही सर्वश्रेष्ठ समझता हूँ।’ इस प्रकार के प्रश्नोत्तरों में ही वह रात शेष हो गयी और दोनों फिर एक-दूसरे से पृथक हो गये। राय महाशय का अनुराग प्रभु के पादपपद्मों में उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता था, वे उनमें साक्षात श्रीकृष्ण के रुप का अनुभव करने लगे। उनके नेत्रों के सामने से प्रभु का वह प्राकृत रुप एकदम ओझल हो गया और वे अपने इष्टदेव श्रीराधा-कृष्ण के स्वरूप का दर्शन करने लगे। इसीलिये उन्होंने एक दिन प्रभु से पूछा- ‘प्रभो ! मैं आपके श्रीविग्रह में अपने इष्टदेव के दर्शन करता हूँ। मुझे ऐसा भान होने लगा है कि आप साक्षात श्रीमन्नारायण ही हैं। लोगों को भ्रम में डालने के लिये आपने यह छद्म-वेष धारण कर लिया है।’ हंसते हुए प्रभु ने उत्तर दिया- ‘राय महाशय ! आपको भी मेरे शरीर में अपने इष्टदेव के दर्शन न होंगे तो और किसे होंगे? आपकी दृष्टि में तो जितने संसार के दृश्य पदार्थ हैं सब के सब इष्टमय यही होने चाहिये। |