श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
102. वासुदेव कुष्ठीका उद्धार
प्रभु का आलिंगन पाते ही पता नहीं, वासुदेव के सम्पूर्ण शरीर का कुष्ठ कहाँ चला गया, वह बात-की-बात में एकदम स्वस्थ्य हो गया और उसका सम्पूर्ण शरीर सुन्दर सुवर्ण के समान चमकने लगा। प्रभु की ऐसी कृपालुता देखकर आँखों में से प्रेमाश्रु बहाता हुआ गदगद कण्ठ से वासुदेव कहने लगा- ‘प्रभो ! मुझ-जैसे पापी का उद्धार करके आपने अपने पतितपावन नाम को ही सार्थक किया है। पतितों को पावन करना तो आपका विरद ही है। मैं माया-मोह में फंसा हुआ अल्पज्ञ प्राणी आपकी स्तुति कर ही क्या सकता हूँ? आपकी विशद विदावली का बखान करना मनुष्य-शक्ति के बहार की बात है। आप नररूप साक्षात नारयण हैं, आपकी प्रच्छन्नवेषधारी श्रीहरि हैं। आपकी महिमा अपार है, शेषनाग जी सहस्त्र फणों से सृष्टि के अन्त तक भी आपके गुणों का बखान नहीं कर सकते।’ इतना कहते-कहते उसका कण्ठ भर आया, आगे वह कुछ भी नहीं कह सका और मूर्च्छित होकर प्रभु के पैरों के समीप गिर पड़ा। प्रभु ने उसे अपने हाथ से उठाया और भगवन्नाम का उपदेश करते हुए नित्यप्रति कृष्ण-कीर्तन करते रहने की शिक्षा दी। इस प्रकार दोनों ब्राह्मणों को प्रेम से आलिंगन करके प्रभु फिर वहाँ से आगे की ओर चल दिये।
कूर्माचल तीर्थ से चलकर प्रभु नाना ग्रामों में होते हुए ‘जियड़नृसिंह’ नामक तीर्थ में पहुँचे। वहाँ नृसिंह भगवान की स्तुति-प्रार्थना करके बहुत देर तक संकीर्तन करते रहे और पूर्व की ही भाँति रास्ते के सभी लोगों को भगवन्नाम का उपदेश करते हुए महाप्रभु पुण्यतोया गोदावरी नदी के तटपर पहुँचे। उस स्थान की प्राकृतिक छटा देखकर प्रभु का मन नृत्य करने लगा। उन्हें एकदम वृन्दावन का भान होने लगा। वे सोचने लगे-सार्वभौम भट्टाचार्य ने यहीं पर रामानन्द राय से मिलने के लिये कहा था। वे यहाँ के शासनकर्ता राजा हैं। उनसे किस प्रकार भेंट हो सकेगी। यही सोचते-विचारते प्रभु गोदावरी के बिलकुल तटपर पहुँच गये और वहाँ आकर एक स्थान पर बैठ गये।
|