श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी100. दक्षिण यात्रा का विचार
प्रभु ने हंसते हुए कहा- ‘गुरु महाराज ! आपकी तो दूर से ही चरणवन्दना करनी चाहिये। अभी तक मैं आपके कठोर नियम वाले स्वभाव से एकदम अपरिचित था। वैसे कहने के लिये तो मैंने संन्यास धारण कर लिया है; किन्तु भगवत-भक्त-प्रेमियों की उपेक्षा मुझसे अब भी नहीं की जाती। उनके प्रेम के पीछे मैं नियम-उपनियमों को अपने-आप ही भूल-सा जाता हूँ। आप इससे समझते हैं कि धर्म-विरुद्ध काम करता हूँ। आप कठोर नियमों के बन्धन में ही मुझे जकड़े रहने का उपदेश किया करते हैं। मुझे शरीर का भी तो होश नहीं रहता’ फिर आपके कर्कश और कठोर नियमों का पालन मैं किस प्रकार कर सकूँगा। इसलिये आप मेरे स्वतन्त्र व्यवहार को देखकर सदा मुझे टोकते रहेंगे- यह मेरे लिये असह्य होगा। इसलिये मैं अकेला ही जाऊँगा।’ धीरे से डरते-डरते जगदानन्द जी ने पूछा- ‘प्रभो! यह तो हम आपकी बातों के ढंग से ही समझ गये कि आप किसी को भी साथ न ले जायँगे। किन्तु जब प्रसंग छिड़ ही गया है तो मैं भी जानना चाहता हूँ कि मेरा परित्याग किस दोष के कारण किया जा रहा है?’ प्रभु ने जोरों से हंसते हुए कहा- ‘और किसी का तो ले भी जा सकता हूँ, किन्तु जगदानन्द जी को साथ ले आना तो मैं कभी भी पसंद न करूँगा। जब तक इनकी इच्छा के अनुसार मैं व्यवहार करता रहूँ, तब तक तो ये प्रसन्न रहते हैं, जहाँ इनके मनोभावों में तनिक-सी भी ठेस लगी कि ये फूलकर कुप्पा हो जाते हैं। इनकी मनोवांछा को पूर्ण करना मेरी शक्ति के बाहर की बात है। इनके मनोऽनुकूल बर्ताव करने से तो मैं सन्यास-धर्म का पालन कर ही नहीं सकता। ये मुझे खूब बढ़िया पदार्थ खाते देखकर सुखी होते हैं, मुझे अच्छे वस्त्रों में देखना चाहते हैं। मैं खूब सुन्दर शय्या पर शयन करूँ तब ये प्रसन्न होते हैं। मैं सन्यास-धर्म के विरुद्ध संसारी विषयों का उपभोग कभी कर नहीं सकता। इसलिये इनके साथ से तो अकेला ही अच्छा हूँ।’ इतना कहकर प्रभु मुकुन्द के मुख की ओर देखने लगे।मुकुन्द चुपचाप बैठे थे, उनकी आँखों में लबालब जल भरा हुआ था; किन्तु वह बाहर नहीं निकलता था। प्रभु की ममताभरी चितवन से वह जल अपने-आप ही आँखों की कोरों द्वारा बहने लगा। प्रभु ने ममत्व प्रदर्शित करते हुए कहा– ‘कहो, तुम भी अपना दोष सुनना चाहते हो ?’ |