श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी91. श्रीगोपीनाथ क्षीरचोर
जगन्नाथ जी में पहुँचते ही पुरी महाराज के आगमन का समाचार चारों ओर फैल गया। दूर-दूर से लोग पुरी महाराज के दर्शन के लिये आने लगे। सचमुच मान-प्रतिष्ठा तथा कीर्ति की गति अपनी शरीर की छाया के समान ही है, तुम यदि स्वयं छाया को पड़ने दौड़ोगें तो वह तुमसे आगे-ही-आगे भगती जायगी। तुम कितना भी प्रयत्न करो, वह तुम्हारे हाथ न आवेगी। उसी की तुम उपेक्षा करके उससे पीछा छुड़ाकर दूसरी ओर भागो, तुम चाहे उससे कितना भी पीछा छुड़ाना चाहो, किंतु वह तुम्हारा पीछा न छोड़ेगी। तुम जिधर भी जाओगे उधर ही वह तुम्हारे पीछे-पीछे लगी डोलेगी। जो लोग प्रतिष्ठा चाहते हैं, प्रतिष्ठा के लिये सब कुछ करने को तैयार हैं, उनकी प्रतिष्ठा नहीं होती और जो संसार में पृथक होकर एकदम प्रतिष्ठा से दूर भागते हैं, संसार उनकी प्रतिष्ठा करता है। इसीलिये तो संसार की गति को उलटी बताते हैं। गोपीनाथ भगवान के दरबार में से पुरी महाराज प्रतिष्ठा के ही भय से भाग आये थे, उसने यहाँ भी पिण्ड नहीं छोड़ा। अस्तु, कुछ काल तक जगन्नाथपुरी में निवास करके ब्राह्मणों के समुख अपने श्रीगोपाल की इच्छा कह सुनायी। भगवान की इच्छा को समझकर पुरीनिवासी ब्राह्मण परम प्रसन्न हुए और उन्होंने पुरी महाराज के लिये बहुत-से मलयागिरी चन्दन की व्यवस्था कर दी। राजा से कहकर उन्होंने चन्दन के लिये यथेष्ट कर्पूर तथा केसर-कस्तूरी का भी प्रबन्ध कर दिया। उन्हें व्रज तक पहुँचाने के लिये दो सेवक भी पुरी महाराज के साथ कर दिये और राजाज्ञा दिलाकर उन्हें प्रेमपूर्वक विदा कर दिया। चन्दन, कर्पूर आदि को लिये हुए पुरी महाराज फिर रेमुणाय में पधारे और श्रीगोपीनाथ भगवान के दर्शन के निमित वहाँ दो चार दिन के लिये ठहर गये। |