श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी86. माता को संन्यासी पुत्र के दर्शन
इधर महाप्रभु के घर पहुँचते ही अद्वैताचार्य की धर्मपत्नी सीतादेवी ने बात-की-बात में ही भाँति-भाँति के व्यंजन बनाकर तैयार कर लिये। जितने व्यंजन उसने बनाये थे, उतने व्यंजनों को अनेकों स्त्रियां मिलकर कई दिनों में भी नहीं बना सकती थीं। खट्टे, मीठे, चरपरे, नमकीन तथा भाँति-भाँति के अनेक पदार्थ बनाये गये, बीसों प्रकार के साग थे, एक केले के ही साग कई प्रकार से बनाये गये। चावल की, मखानों की, रामतोरई की, केले की तथा तीकुर की कई प्रकार की खीरें थीं। मूंग के, उड़द के, घुहियों के और भी कई प्रकार के बड़े थे। कद्दू का, बथुए का, पोदीने का, धनिये का और नुक्तियों के अलग-अलग पात्रों में रायता रखा हुआ था। भाँति-भाँति की मिठाइयाँ थीं। विविध प्रकार के अचार तथा मुरब्बे थे। बहुत बढ़िया चावल बनाये गये थे। मूंग, उड़द, अरहर, मोंठ, चना आदि कई प्रकार की अलग-अलग दालें बनायी गयी थीं। दही-चूरा, दुध-चूरा, नारिकेल, दूध आदि विभिन्न प्रकार के द्रव्य तैयार किये गये। आचार्य ने तीन स्थानों में सभी पदार्थ सजाये और भगवान का भोग लगाकर प्रभु से भोजन करने की प्रार्थना की। प्रभु के बैठने के लिये आचार्य ने दो आसन दिये और उन्हें हाथ पकड़कर भोजन के लिये बिठाया। भाँति-भाँति की इतनी सामग्रियों को देखकर प्रभु कहने लगे- ‘धन्य है, जिनके घर में इतने सुन्दर-सुन्दर पदार्थों का नित्यप्रति भगवान को भोग लगता हो, उनकी चरण-धूलि से पापी-से-पापी पुरुष भी पावन बन सकते हैं। सीतामाता तो साक्षात अन्नपूर्णा मातेश्वरी हैं, उनके लिये इतने व्यजनों का बनाना कौन कठिन है?’ |