श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी82. संन्यास-दीक्षा
पक्षियों के कलरव को सुनकर प्रभु की तन्द्रा दूर हूई और वे आसन पर से उठकर बैठ गये। पास में ही बेसूध पड़े हुए आचार्यरत्न, नित्यानन्द आदि को प्रभु ने जगाया। सबके जग जाने पर प्रभु नित्यकर्मों से निवृत्त हुए।
गंगा जी में स्नान करने के निमित्त अपने सभी साथियों के सहित प्रभु ने अपने भावी गुरुदेव के चरण-कमलों में प्रणाम किया और बड़ी ही नम्रता से दोनों हाथों की अंजलि बांधे हुए उनसे निवेदन किया- ‘भगवन्! मैं उपस्थित हूँ, अब आज्ञा दीजिये मुझे क्या-क्या करना होगा।’ कण्टक-नगर-निवासी नर-नारियों को कल तक यही पता था कि भारती जी उस युवक संन्यास-दीक्षा के लिए को देने के लिये कभी सहमत न होंगे; किंतु आज जब प्रात: ही उन लोगों ने यह समाचार सुना कि भारती तो उस ब्राह्मण-युवक को संन्यासी बनाने के लिये राजी हो गये और आज ही उसे शिखा-सूत्र से रहित करके द्वार-द्वार से भिक्षा मांगने वाला गृह-त्यागी विरागी बना देंगे, तब तो उनके दु:ख का ठिकाना नहीं रहा। न जाने उन ग्रामवासियों को प्रभु के प्रति दर्शन मात्र से ही क्यों ममता हो गयी थी। वे सभी प्रभु को अपना घर का-सा सगा-सम्बन्धी ही समझने लगे। बात-ही-बात में बहूत-से स्त्री-पुरुष आश्रम में आकर एकत्रित हो गये। स्त्रियाँ एक ओर खड़ी होकर आंसू बहा रही थीं। पुरुष आपस में मिलकर भाँति-भाँति की बातें कर रहे थे। कोई तो कहता- ‘अजी! इस युवक को ही समझाना चाहिये। जैसे बने, समझा-बुझाकर इसे इसकी माता के समीप पहुँचा आना चाहिये।’ इस पर दूसरा कहता- ‘वह समझे तब तो समझावें। जब उसके सगे-सम्बन्धी ही उसे नहीं समझा सके, तो हम-तुम तो भला समझा ही क्या सकते हैं।’ इतने ही में एक बूढा़ बोल उठा- ‘अजी! हम सब इतने आदमी हैं, संन्यास का कार्य ही न होने देंगे, बस, निबट गया किस्सा।’ इस पर किसी विचारवान ने कहा- ‘भाई! यह कैसे हो सकता है। हम ऐसे शुभ काम में जबरदस्ती कैसे कर सकते हैं। ऐसे पुण्य-कर्मों में यदि कुछ सहायता न बन सके तो इस तरह विघ्न करना तो ठीक नहीं है। हम लोग मुंह से ही समझा सकते हैं। जबरदस्ती करना हमारा धर्म नहीं।’ इस पर उद्धत स्वभाव का युवक जोरों से बोल उठा- ‘अजी! धर्म गया ऐसी-तैसी में। ऐसे धर्म में तो तेल डालकर आग लगा देनी चाहिये। बने हैं, कहीं के धर्मात्मा। यदि ऐसी ही बात है, तो तुम ही क्यों नहीं संन्यास ले लेते। क्यों दिनभर यह ला, वह ला, इसे रख, उसे उठा करते रहते हो।’ ‘औरों को बुढ़िया सिख-बुधि देय, अपनी खाट भीतरो लेय।’ |