श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी81. गौरहरि का संन्यास के लिये आग्रह
भारती जी को पिछली बातें स्मरण हो आयीं। निमाई का नाम सुनकर उन्होंने उनका आलिंगन किया और मन-ही-मन सोचने लगे- ‘हाय! इन पण्डित का कैसा सुवर्ण के समान सुन्दर शरीर, कैसा अलौकिक रूप-लावण्य, प्रभु के प्रति कितना प्रगाढ़ प्रेम और कितनी भारी विद्वत्ता है, फिर भी ये मेरे पास संन्यास-दीक्षा लेने आये हैं! इन्हें मैं संन्यासी कैसे बना सकूँगा? घर में असहाया वृद्धा माता है, उसकी यही एकमात्र सन्तान है। परम रूपवती युवती स्त्री इनके घर में है, उसके कोई सन्तान भी नहीं, जिससे आगे के लिये वंश चल सके। ऐसी दशा में भी ये संन्यास लेने आये हैं; क्या इन्हें संन्यास की दीक्षा देकर मैं पाप का भागी न बनूंगा?’ यह सोचकर भारतीजी कहने लगे- ‘निमाई पण्डित! तुम स्वयं बुद्धिमान हो, शास्त्रों का मर्म तुमसे अविदित नहीं है। युवावस्था में विषय-भोगों से भलीभाँति उपरति नहीं होती, इसलिये इस अवस्था में संन्यास-धर्म ग्रहण करना निषेध है। पचास वर्ष की अवस्था के पश्चात जब विषय-भोगों से विराग हो जाय तब संन्यास-आश्रम का विधान है। अत: अभी तुम्हारी संन्यास ग्रहण करने योग्य अवस्था नहीं है। अभी तुम घर में ही रहकर भगवद्भजन करो। घर में रहकर क्या भगवान का भजन नहीं हो सकता? हमारा तो ऐसा विचार है कि द्वार-द्वार से टुकडे़ मांगने की अपेक्षा तो घर में ही निर्विघ्नतापूर्वक भजन हो सकता है। पेट तो कहीं भी भरना ही होगा। रहने को स्थान भी कहीं खोजना ही होगा। इसलिये बने-बनाये घर को ही क्यों छोड़ा जाय। न दस-बीस घरों में भिक्षा मांगी एक ही जगह कर ली। इसलिये हमारी सम्मति में तो तुम अपने घर लौट जाओ।’ अत्यंत ही करूणस्वर से प्रभु ने कहा- ‘भगवन! आप साक्षात ईश्वर हैं। आप शरीर धारी नारायण हैं, मुझ संसारी-गर्त में फंसे हुए जीव का उद्धार कीजिये। आप मुझै इस तरह से न बहकाइये। आप मुझे वचन दे चुके हैं, उस वचन का पालन कीजिये। मनुष्य की आयु क्षणभंगुर है। पचास वर्ष किसने देखे हैं। आप सब कुछ करने में समर्थ हैं, आप मुझे संसार-बंधन से मुक्त कर दीजिये।’ |