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श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
72. क़ाज़ी की शरणागति
प्रभु ने अपने दोनों हाथ उठाकर भीड़ को शांत हो जाने का संकेत किया। देखते-ही-देखते सर्वत्र सन्नाटा छा गया। उस समय ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो यहाँ कोई है ही नहीं। गदाधर ने प्रभु के दोनों चरणों में नूपुर बांध दिये। फिर क्रमश: सभी भक्तों ने अपने-अपने पैरों में नूपुर पहन लिये। बायें पैर को ठमकाकर प्रभु ने नूपुरों की ध्वनि की। प्रभु के ध्वनि करते ही एक साथ ही सहस्त्रों भक्तों ने अपने-अपने नूपुरों का बजाया। भीड़ में आनन्द की तरंगें उठने लगीं। भीड़ में स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध तथा युवा सभी प्रकार के पुरुष थे। जाति-पांति का कोई भी भेद-भाव नहीं था, जो भी चाहे आकर संकीर्तन-समाज में सम्मिलित हो सकता था। किसी के लिये किसी प्रकार की रोक-टोक नहीं थी। भीड़ मे जितने भी आदमी थे, प्राय: सभी के हाथों में एक-एक मशाल थी। लोगों की सूझ ही तो ठहरी। प्रकाश के लिये मशाल न लेकर उस दिन मशाल ले चलने का एक प्रकार से माहात्म्य ही बन गया था, मानो सभी लोग मिलकर अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार छोटे-बड़े आलोक के द्वारा नवद्वीप के चिरकाल के छिपे हुए अज्ञानान्धकार को खोज-खोजकर भगा देने के ही लिये कटिबद्ध होकर आये हैं। किसी के हाथ में बड़ी मशाल थी, किसी के छोटी। किसी-किसी ने तो दोनों हाथों में दो-दो मशालें ले रखी थीं। छोटे-छोटे बच्चे छोटी-छोटी मशालें लिये हुए ‘हरि बोल’, ‘हरि बोल’ कहकर उछल रहे थे।
गोधूलि का सुखमय समय था। आकाश-मण्डल में स्थित भगवान दिवानाथ गौरचन्द्र के असह्यरूप-लावण्य से पराभव पाकर अस्ताचल में मुंह छिपाने के लिये उद्योग कर रहे थे। लज्जा के कारण उनका सम्पूर्ण मुख-मण्डल रक्तवर्ण का हो गया था। इधर आकाश में अर्धचन्द्र उदित होकर पूर्णचन्द्र के पृथ्वी पर अवतीर्ण होने की घोषणा करने लगे। शुक्ल पक्ष था, चांदनी रात्रि थी, ग्रीष्मकाल का सुखद समय था। सभी प्रेम में उन्मत्त हुए ‘हरि बोल’, ‘हरि बोल’ कहकर चिल्ला रहे थे। प्रभु ने भक्तों को नियमपूर्वक खड़े हो जाने का संकेत किया। सभी लोग पीछे हट गये। संकीर्तन करने वाले भक्त आगे खड़े हुए। प्रभु ने भक्त-मण्डली को चार सम्प्रदायों में विभक्त किया। सबसे आगे वृद्ध सेनापति भक्ति-सेना के महारथी भीष्म पितामह के तुल्य श्री अद्वैताचार्य का सम्प्रदाय था। उस सम्प्रदाय के वे ही अग्रणी थे। इनके पीछे श्रीवास पण्डित अपने दल-बल के सहित डटे हुए थे। श्रीवास पण्डित के सम्प्रदाय में छटे हुए कीर्तन कला में कुशल सैकड़ों भक्त थे। इनके पीछे महात्मा हरिदास का सम्प्रदाय था। सबसे पीछे महाप्रभु अपने प्रधान-प्रधान भक्तों के सहित खड़े हुए। प्रभु के दायीं ओर नित्यानंद जी और बायीं ओर गदाधर पण्डित शोभायमान थे।
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