श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी69. भक्तों के साथ प्रेम-रसास्वादन
संन्यासी जी की स्त्री सुंदर-सुंदर आम और छिले हुए कटहल के कोये दो पात्रों में सजाकर लायीं। दो कटोरों में सुंदर दुग्ध भी था। प्रभु जल्दी-जल्दी कटहल और आमों को खाने लगे। वे संन्यासी महाशय वाममार्गी थे। यह हम पहले ही बता चुके हैं, उस समय बंगाल में वाममार्ग-पन्थ का प्राबल्य था। स्त्री ने पूछा- ‘क्या ‘आनन्द’ भी थोड़ी-सी लाऊं? संन्यासी जी ने संकेत द्वारा उसे मना कर दिया। स्त्री भीतर चली गयी। एक बड़े आम को खाते हुए प्रभु ने नित्यानंद जी से पूछा- ‘श्रीपाद! ‘आनन्द’ क्या वस्तु होता है? क्या संन्यासीयों की भाषा पृथक होती है? या गृहस्थी-संन्यासीयों की यह भाषा है। तुम तो गृहस्थी–संन्यासी नहीं हो फिर भी जानते ही होगे।’ प्रभु के इस प्रश्न से नित्यानंद जी हंसने लगे। प्रभु ने फिर पूछा- ‘श्रीपाद! हंसते क्यों हो, ठीक-ठीक बताओं? आनन्द क्या है? कोई मीठी चीज हो तो मंगाओ, दूध के पश्चात मीठा मुंह होगा!’ आम के रस को चूसते हुए नित्यानंद जी ने कहा- ‘प्रभों! ये लोग वाममार्गी हैं। मदिरा को ‘आनन्द’ कहकर पुकारते हैं। यह सुनकर प्रभु को बड़ा दु:ख हुआ। वे चारों ओर घिरे हुए सिंह की भाँति देखने लगे। इतने में ही स्त्री के बुलाने पर संन्यासी महाशय भीतर चले गये। उसी समय प्रभु जलपान के बीच में से ही उठकर दौड़ पड़े। नित्यानंद जी भी पीछे-पीछे दौड़े। इन दोनों को जलपान के बीच में ही भागते देखकर संन्यासी जी भी इन्हें लौटाने के लिये चले। प्रभु जल्दी से गंगा जी में कूद पड़े और तैरते हुए शांतिपुर की ओर चलने लगे। नित्यानंद जी तो तैरने के आचार्य ही थे, वे भी प्रभु के पीछे-पीछे तैरने लगे। गंगा जी के बीच में ही प्रभु का आवेश आ गया। दो कोस के लगभग तैरकर ये शांतिपुर के घाटपर पहुँचे और घाट से सीधे ही आचार्य के घर पहुँचे। दूर से ही हरिदास जी ने प्रभु को देखकर उनकी चरण-वंदना की, किंतु प्रभु को कुद होश नहीं था, वे सीधे अद्वैताचार्य के ही समीप पहुँचे। उन्हें देखते ही प्रभु ने कहा- ‘क्यों! फिर सूख ज्ञान बघारने लगे।’ |