श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी69. भक्तों के साथ प्रेम-रसास्वादन
इस प्रकार प्रभु का असीम अनुग्रह प्राप्त करके आनन्द में विभोर हुए मुरारी घर आये। आते ही इन्होंने भावावेश में अपनी पत्नी से खाने के लिये दाल-भात माँगा। पतिव्रता साध्वी पत्नी ने उसी समय दाल-भात परोस कर इनके सामने रख दिया। अब तो ये ग्रासों में घी मिला-मिलाकर जो भी बाल-बच्चा अथवा कोई भी दीखता, उसे ही प्रेमपूर्वक खिलाते जाते और स्वयं भी खाते जाते। बहुत-सा अन्न पृथ्वी पर भी गिरता जाता। इस प्रकार से ये कितना खा गये, इसका इन्हें कुछ भी पता नहीं। इनकी स्त्री ने जब इनकी ऐसी दशा देखी तब वह चकित रह गयी, किंतु उस पतिप्राणा नारी ने इनके काम में कुछ हस्तक्षेप नहीं किया। इसी प्रकार खा-पीकर सो गये। प्रात:काल जब उठे तो क्या देखते हैं, महाप्रभु इनके सामने उपस्थित हैं। इन्होंने जल्दी से उठकर प्रभु की चरण-वंदना की और उन्हें बैठने के लिये एक सुंदर आसन दिया। प्रभु के बैठ जाने पर मुरारी ने विनीतभाव से इस प्रकार असमय में पधारने का कारण जानना चाहा। प्रभु ने कुछ हंसते हुए कहा- ‘तुम्हीं तो वैद्य होकर आफल कर देते हो। लाओ कुद ओषधि तो दो।’ आश्चर्य प्रकट करते हुए मुरारी ने पूछा- ‘प्रभो! ओषधि कैसी? किस रोग की ओषधि चाहिये? रातभर में ही क्या विकार हो गया? प्रभु ने हंसते हुए कहा- ‘तुम्हें मालूम नहीं है क्या विकार हो गया? अपनी स्त्री से तो पूछो। रात को तुमने मुझे कितना घृतमिश्रित दाल-भात खिला दिया। तुम प्रेम से खिलाते जाते थे, मैं भला तुम्हारे प्रेम की उपेक्षा कैसे कर सकता था? जितना तुमने खिलाया, खाता गया। अब अजीर्ण हो गया है और उसकी ओषधि भी तुम्हारे पास ही रखी है। यह देखो, यही इस अजीर्ण की ओषधि है।’ यह कहते हुए प्रभु वैद्य की खाट के समीप रखे हुए उनके उच्छिष्ट पात्र का जल पान करने लगे। मुरारी यह देखकर जल्दी से प्रभु को ऐसा करने से निवारण करने लगे। किंतु तब तक प्रभु आधे से अधिक जल पी गये। यह देखकर मुरारी प्रेम के रोते-रोते प्रभु के पादद्मों में लोटने लगे। एक दिन प्रभु ने अत्यंत ही स्नेह के सहित मुरारी गुप्त ने कहा- ‘मुरारी! तुमने अपनी अहैतु की भक्ति द्वारा श्रीकृष्ण को अपने वश में कर लिया है। अपनी प्रेमरूपी डोरी से श्रीकृष्ण को इस प्रकार कसकर बांध लिया है कि यदि वे उससे छूटने की भी इच्छा करें तो नहीं छूट सकते।’ इतना सुनते ही कवि-हृदय रखने वाले मुरारी गुप्त ने अपनी प्रत्युत्पन्नमति से उसी समय वह श्लोक पढ़कर प्रभु को सुनाया- सुदामा की उक्ति है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा.10/81/16