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श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
64. जगाई-मधाई का उद्धार
नाथ! हम दोनों को ही अपनाइये, हम दोनों की ही रक्षा कीजिये।' यह कहते-कहते मधाई भी प्रभु के चरणों में लौटने लगा। अश्रुओं के वेग से वहाँ की सब धूलि कीचड़ बन गयी थी, वह कीचड़ दोनों भाइयों के अंगों में लिपटा हुआ था। सम्पूर्ण शरीर धूलि और कीच में सना हुआ था। नदिया के बिना तिलक के राजाओं को इस प्रकार धूलि में लोटते देखकर सभी नर-नारी अवाक रह गये। सभी लोग उन पापियों के पापों को भुलाकर उनके ऊपर दया के भाव प्रदार्शित करने लगे। अहा! नम्रता में कितना भारी आकर्षण होता है!
मधाई के ऊपर से प्रभु का रोष अभी भी नहीं गया था। उन्होंने गम्भीर स्वर में कहा- ‘मधाई! मैं तुम्हें क्षमा नहीं कर सकता। मैं अपने अपराध करने वाले के प्रति तो कभी क्रोध नहीं करता, किंतु तुमने श्रीपाद नित्यानंद जी का अपराध किया है, यदि वे तुम्हें क्षमा कर दे, तब तो तुम मेरे प्रिय हो सकते हो। जब तक वे तुम्हें क्षमा नहीं करते, तब तक तुम मेरे सामने दोषी ही हो। जाओ, नित्यानंद जी की शरण लो।'
प्रभु की ऐसी आज्ञा सुनकर मधाई अस्त-व्यस्तभाव से प्रभु के चरणों को छोड़कर नित्यानंद जी के चरणों में जाकर गिर गया और फूट-फूटकर रोने लगा। उसे अपने कुकृत्य पर बड़ी भारी लज्जा आ रही थी। उसी की ग्लानि के कारण वह अधीर होकर दहाड़ मारकर रो रहा था। उसके रुदन की ध्वनि को सुनकर पत्थर भी पसीज उठता था। चारों दिशाओंमें सन्नाटा छा गया, मानों मधाई के रुदन से द्रवीभूत होकर सभी दिशाएं रो रही हों, सभी लोग उन पापियों की ऐसी दशा देखकर अपने आपे को भूल गये। उन्हें उस क्षण कुछ पता ही नहीं चला कि हम स्वर्ग में हैं या मर्त्यलोक में। सभी गौरांग के प्रेम-प्रवाह के वशवर्ती होकर उस अभूतपूर्व दृश्य को देख रहे थे।
मधाई को नित्यानंद जी के पैरों के नीचे पड़ा देखकर नित्यानंद जी से प्रभु कहने लगे- ‘श्रीपाद! इस मधाई ने आपका अपराध किया है, आप ही इसे क्षमा कर सकते हैं, मुझमें इतनी क्षमता नहीं कि मैं आपका अपराध करने वाले को अभय प्रदान कर सकूँ। बोलो क्या कहते हो?’
अत्यंत ही दीन-भाव से नित्यानंद जी ने कहा- ‘प्रभो! यह तो आपकी सदा से ही रीति रही आयी है। आप अपने सेवकों के सिर सदा से सुयश का सेहरा बांधते आये हैं। आप इनके उद्धार का श्रेय मेरे सिर पर लादना चाहते हैं, किंतु इस बात को तो सभी जानते हैं कि पतितपावन गौर में ही ऐसे पापियों को उबारने की सामर्थ्य है।
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