63. जगाई-मधाई की क्रूरतानित्यानन्द की उनके उद्धार के निमित्त प्रार्थना
नित्यानन्द जी ने कहा- ‘आपकी बात तो ठीक है, किंतु प्रभु की तो आज्ञा है कि भगवन्नाम-वितरण में पात्रापात्र का ध्यान मत रखना, सभी को समानभाव से उपदेश करना। पापी हो या पुण्यात्मा, भगवन्नाम ग्रहण करने के तो सभी अधिकारी हैं। इसलिये इन्हें भगवन्नाम का उपदेश क्यों न किया जावे?’ हरिदास जी ने कुछ नम्रता के स्वर में कहा- ‘यह तो ठीक है। आपके सामने जो भी पड़े उसे ही भगवन्नाम का उपदेश करो, किंतु इन्हीं को विशेष-रूप से उद्देश्य करके इनके पास चलना ठीक नहीं। इन्हीं के पास हठपूर्वक क्यों चला जाय? भगवन्नाम का उपदेश करने के लिये और भी बहुत-से मनुष्य पड़े हैं। उन्हें चलकर उपदेश कीजिये।‘ नित्यानन्द जी ने कुछ दृढ़ता के साथ कहा- ‘देखिये, जो अधिक बीमार होता है, जिसे अन्य रोगियों की अपेक्षा ओषधि की अधिक आवश्यकता होती है, बुद्धिमान वैद्य सबसे पहले उसी रोगी की चिकित्सा करता है और उसे ओषधि देकर तब दूसरे रोगी की नाड़ी देखता है। अन्य लोगों की अपेक्षा भगवन्नाम की इन्हीं लोगों को अधिक आवश्यकता है। इनके इतने क्रूर कर्मों का भगवन्नाम से ही प्रायश्चित्त हो सकता है। इनकी निष्कृतिका दूसरा कोई मार्ग है ही नहीं। क्यों ठीक है न? आप मेरी बात से सहमत हैं न?’ हरिदास जी ने कहा- ‘जैसी आपकी इच्छा, यदि आप इन्हें ही सबसे अधिक भगवन्नाम का अधिकारी समझते हैं तो इसमें कोई आपत्ति नहीं। मैं भी आपके साथ चलने को तैयार हूँ।’ यह कहकर हरिदास जी- इस महामन्त्र का अपने सुमधुर कण्ठ से गान करते हुए जगाई-मधाई के डेरे की ओर चले। इन दोनों को बादशाह की ओर से थोड़ी-सी फौज भी मिली हुई थी। उसे ये सदा साथ रखते थे। ये दोनों संन्यासी निर्भीक होकर भगवन्नाम का गान करते हुए इनके निवास-स्थान के समीप पहुँचे। |