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गीता दर्पण -स्वामी रामसुखदास
69. गीता में सगुणोपासना के नौ प्रकार
4. सबके मालिक भगवान् हैं- मैं अजन्मा, अविनाशी और संपूर्ण प्राणियों का ईश्वर (मालिक) होता हुआ भी अपनी प्रकृति को अधीन करके योगमाया से प्रकट होता हूँ[1]; जो मुझे सब यज्ञों और तपों का भोक्ता, संपूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर (मालिक) तथा संपूर्ण प्राणियों का सुहृद् मानता है, वह शांति को प्राप्त हो जाता है[2] प्रकृति मेरी अध्यक्षता में संपूर्ण चराचर जगत् को रचती है[3]; मूढ़लोग मुझ संपूर्ण प्राणियों के महान् ईश्वर को साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं[4]; संपूर्ण योगों के महान् ईश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपना परम ऐश्वर्ययुक्त विराट् रूप दिखाया[5]; आदि-आदि। 5. सब कुछ भगवान से ही होता है- सात्त्विक, राजस और तामस भाव से मेरे से ही होते हैं[6] बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह आदि बीस भाव मेरे से ही होते हैं[7]; मेरे से ही सारा संसार प्रवृत्त होता है [8]; स्मृति ज्ञान और अपोहन मेरे से ही होते हैं;[9] परमात्मा से ही सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है[10]; आदि-आदि। 6. सबके विधायक भगवान् हैं- जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओं की उपासना करता है, उस उपासना के फल का विधान मैं ही करता हूँ[11]; भक्तों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ[12]; मेरा आश्रय लेने वाला भक्त मेरी कृपा से अविनाशी पद को प्राप्त होता है[13]; ईश्वर संपूर्ण प्राणियों के हृदय में रहता हुआ शरीररूपी यंत्र पर आरूढ़ हुए संपूर्ण प्राणियों को घुमाता है[14]; आदि-आदि। 7. सबके आराध्य भगवान् ही हैं- तीनों वेदों में कहे हुए सकाम अनुष्ठान को करने वाले मनुष्य यज्ञों के द्वारा इंद्र रूप से मेरा ही पूजन करते हैं[15]; जो मनुष्य अन्य देवताओं की उपासना करते हैं, वे वास्तव में मेरी ही उपासना करते हैं, पर करते हैं अविधिपूर्वक अर्थात् वे उन देवताओं के रूप में मुझे नहीं मानते[16]; निर्गुण निराकार की उपासना करने वाले मुझे ही प्राप्त होते हैं[17]; आदि-आदि। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (4।6)
- ↑ (5।29)
- ↑ (9।10)
- ↑ (9।11)
- ↑ (11।9)
- ↑ (7।21)
- ↑ (10।4-5)
- ↑ (10।8)
- ↑ (15।15)
- ↑ (18।46)
- ↑ (7।22)
- ↑ (9।22)
- ↑ (18।56)
- ↑ (18।61)
- ↑ (9।20)
- ↑ (9।23)
- ↑ (12।3-4)
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