श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी177. श्री चैतन्य–शिक्षाष्टक
(8) हे सखि ! इन व्यर्थ बातों में क्या रखा है। तू मुझे उसके गुणों को क्यों सुनाती है? वह चाहे दयामय हो या धोखेबाज, प्रेमी हो या निष्ठुर, रसिक हो या जारशिरोमणि। मैं तो उसकी चेरी बन चुकी हूँ। मैंने तो अपना अंग उसे ही अर्पण कर दिया है। वह चाहे तो इसे हृदय से चिपटकार प्रेम के कारण इसके रोमों को खड़ा कर दे या अपने विरह में जल से निकली हुई मर्माहत मछली की भाँति तड़फाता रहे। मैं उस लम्पट के पाले अब तो पड़ ही गयी हूँ। अब सोच करने से हो ही क्या सकता है, जो होना था सो हो चुका। मैं तो अपना सर्वस्व उस पर वार चुकी। वह इस शरीर का स्वामी बन चुका। अब कोई अपर पुरुष इसकी ओर दृष्टि उठाकर भी नहीं देख सकता। उसके अनन्त सुन्दर और मनोहर नाम हैं, उनमें से मैं तो रोते-रोते इन्हीं नामों का उच्चारण करती हूँ– श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे ! प्रेमी पाठकों का प्रेम दिन दूना रात चौगुना बढ़ता रहे, क्या इस भिखारी को भी उसमें से एक कण मिलेगा? इति शम् |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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