श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी33. प्रकृति-परिवर्तन
परोपदेशकुशला दृश्यन्ते बहवो जनाः। बाल्यावस्था का स्वभाव आगे चलकर धीरे-धीरे बदल जाता है, किन्तु युवावस्था में जो स्वभाव बन जाता है, उसका परिवर्तित होना अत्यन्त ही कठिन है। अवस्था ज्यों-ज्यों प्रौढ़ होती जाती है, त्यों-त्यों स्वभाव में भी प्रौढ़ता होने लगती है और फिर जिस मनुष्य का जैसा स्वभाव होता है वही उसका आगे के लिये स्वाभाविक गुण बन जाता है। बहुधा ऐसा भी देखा गया है कि बहुत-से लोगों का जीवन एकदम पलट जाता है, वे क्षणभर में ही कुछ-से-कुछ बन जाते हैं। जो आज महाविषयी-सा प्रतीत होता है, वही कल परम वैष्णवों के-से आचरण करने लगता है। जिसे हम कल तक आवारा-आवारा कहकर पुकारते थे, थोड़े दिनों में सहस्रों नर-नारी सिद्ध महात्मा मानकर उसी की पूजा-अर्चा करते हुए देखे गये हैं, किन्तु ऐसा परिवर्तन सभी पुरुषों के जीवन में नहीं होता। ऐसे तो कोई विरले ही भाग्यशाली महापुरुष होते हैं। प्रायः देख गया है कि मनुष्य जब प्राकृति विचारों से ऊँचे उठने लगता है, तब हृदय के परिवर्तन के साथ उसके शरीर में भी परिवर्तन हो जाता है। शरीर के सभी अवयव स्वभाव के ही अनुसार बने हैं, मनुष्य जैसे-जैसे प्राकृतिक विचारों को छोड़ने लगता है वैसे-वैसे उसके अंग-प्रत्यंग भी बदलते जाते हैं। साधारण लोग उस परिवर्तन को रोग समझने लगते हैं। जो एकदम प्रकृति से ऊँचा उठ गया है, फिर उसका पांचभौतिक शरीर अधिक काल स्थिर नहीं रह सकता। क्योंकि शरीर के स्थायित्व के लिये रजोगुणजन्य प्राकृतिक अहंभाव की कुछ-न-कुछ आवश्यकता पड़ती ही है। तभी तो परम भावुक ज्ञानी और प्रेमी अल्पावस्था में ही इस शरीर को त्याग जाते हैं। श्रीशंकाराचार्य, चैतन्यदेव, ज्ञानेश्वर, रामतीर्थ, जगद्बन्धु ये सभी परम भावुक भगवत-भक्त प्रकृति से अत्यन्त ऊँचे उठ जाने के ही कारण शरीर को अधिक दिन नहीं टिका सके। कोई-कोई महापुरुष, अपने सत्संकल्प का कुछ अंश देकर लोक-कल्याण की दृष्टि से उस अवस्था में पहुँचने पर भी कुछ काल के लिये इस शरीर को टिकाये रहते हैं, फिर भी उनमें भावुकता की अपेक्षा ज्ञानांश की कुछ अधिकता होती है, तभी वे ऐसा कर सकते हें। भावुकता की चरम सीमा पर पहुँचने पर तो संकल्प करने का होश ही नहीं होता। जब हृदय में सहसा प्रबल भावुकता का उदय होता है, तो निर्बल शरीर उसका सहन नहीं कर सकता। किसी-किसी का शरीर तो उसी वेग में शान्त हो जाता है, बहुत-से उसे सहन तो कर लेते हैं, किन्तु पागल हो जाते हैं, कुछ कर-धर नहीं सकते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दूसरे को बड़े-बड़े, ऊँचे-ऊँचे, उत्तम-से-उत्तम उपदेश करने वाले तो बहुत-से सुचतुर पण्डित मिल जायँगे, किन्तु जो एकदम अपने स्वभाव को ही पलट दें, ऐसे पुरुष हजारों में भी दुर्लभ हैं। कहीं करोड़ों में कोई ऐसे पुरुष निकलते हैं। सु. र. भां. 77/4