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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 99-107
राजा जिन उपायों को अर्थ और धर्म की सिद्धि के लिए व्यवहार में लाता था उन्हें प्राचीन राजभाषा में ‘औपयिक’ कहा जाता था। दस्यु (डाकू) और लुटेरे मर्यादा-रहित होते हैं। उनके विघात या नाश के ही ये उपाय हैं। सीधी और टेढ़ी, दो प्रकार की बुद्धियां हैं।[1] जानबूझकर टेढ़ी चाल का आश्रय न ले और यदि वह आ भी जाय, तो उसे रोके। शत्रु ही टेढ़ी चाल का प्रयोग करते हैं। उसे पहचानकर राजा उस की काट करे। हाथियों की बगली का चमड़ा, सांड और अजगर का चमड़ा (अर्थात इन चमड़ों से बनी हुई ढाल, दस्ताने आदि), शल्य या लोहे का सीलदार कवच, ये शरीर की रक्षा करने वाले हैं। शस्त्रों को तेज धारयुक्त बनाना चाहिए और संनाह या कवच भी लोहे के होने चाहिए। पताका और केतु अनेक रंगों में रंगे जायं। भाले, बरछे, खड्ग और फरसों को धार रखवाकर तेज बनवाना चाहिए। चमड़े की अनेक ढालें तैयार करवानी चाहिएं। चैत्र या अगहन की पूर्णिमा के दिन सैनिक प्रयाण अच्छा कहा जाता है। उस समय खेतों में फसल पक जाती है और जलवायु भी अधिक शीत या उष्ण नहीं होती। उस समय पानी और धान्य वाले मार्ग से प्रयाण करे। अथवा, जब शत्रु पर आपत्ति हो वैसा समय चुने। इसके बाद चतुरंगिणी सेना के लिए उचित भूमि का वर्णन किया है। सेवा-संगठन के लिए दशाधिपति, शताधिपति और सहस्राधिपति नेताओं की नियुक्ति करनी चाहिए। सब प्रमुख लोगों को एकत्र करके शपथ दिलानी चाहिए कि ‘हम संग्राम में एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ेंगे। जो कायर हों, वे अभी छोड़कर चले जायं। घमासान युद्ध के समय छोड़ना ठीक न होगा। युद्ध के समय जो भागता है, वह अपने आपका और पक्ष का नाश करता है। पलायन से द्रव्यनाश, अयश तथा अकीर्ति होती है।’ इस प्रकार शपथ लेकर वीर लोग शत्रु की सेना में घुस पड़ते हैं। युद्ध में ढाल-तलवार लेकर लड़ने वाले पैदल सैनिकों को सबसे आगे रखना चाहिए। उससे पीछे शकट सेना होनी चाहिए। यदि थोड़ी सेना को बहुसंख्यक सेना से युद्ध करना पड़े तो सूचीमुख व्यूह की रचना करनी चाहिए। एक दूसरे का हाथ पकड़कर ऐसा घोष करना चाहिए कि ‘शत्रु भाग रहे हैं।’ ‘हमारे अपने मित्र सहायता के लिए आ गये हैं।’ क्ष्वेड, कड़के का शब्द, किलकिला शब्द, लेजिम (क्रकच), शंख गोविषाणिका (तुरही), भेरी, मृदंग और पणव आदि का शोर करना चाहिए।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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