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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 99-107
अध्याय 99 में इन्द्र और अम्बरीष के संवाद-रूप में संग्राम की तुलना यज्ञ से की गई है। इन्द्र ने कहा, “संग्राम में हाथी ऋत्विक हैं, घोड़े अध्वर्यु, दूसरों का मांस हवि है। श्रृगाल, गृद्ध, काक और उलूक सदस्य हैं। ये आज्य का शेष रुधिर पीते हैं और हवि खाते हैं। भाले, बर्छे, तलवार, शक्ति, फरसे- ये स्रुक हैं। धनुष से छूटे बाण स्रुव हैं। चीते की खाल की म्यान में रखी हुई हाथी दांत की मूठ वाली तलवार यज्ञ में प्रयुक्त होने वाली ‘रफ्य’ है। लोहे के बने हुए बर्छे, शक्ति और फरसों से लगा हुआ घाव ही यज्ञ का धन है। वेग से बहता हुआ रुधिर पूर्णाहुति है। ‘छिन्धि-भिन्धि’ इस प्रकार के घोष साम गान हैं। हाथी, घोड़े और कवचधारी सैनिकों का समूह हविर्धान शकट है। संग्राम में प्रज्वलित अग्नि यज्ञ की श्येनचित् विधि है। उठकर युद्ध करने वाला कबन्ध मानो खदिर का बना यूप है। अठपहल अंकुश से प्रेरित हाथी इडाहन या इडाहुति के प्रस्न्नतायुक्त गान है। व्याघोष-युक्त नाद वषट्कार है। उद्गाता द्वारा किया जाने वाला त्रिसाम गान दुन्दुभि है। शत्रुओं के सिर रणभूमि में बिछाना वेदि का बर्हि-आस्तरण है। युद्ध में मृत्यु को प्राप्त शूर का शोक न करे।[1] उसके लिए श्राद्ध में अन्नोदक या जलान्जलि भी नहीं होती। जो मुख में तृण रखकर ऐसा कहता है कि मैं आपकी शरण में हूं, उसे नहीं मारना चाहिए। वृत्र, बल, पाक, विरोचन, नमुचि, संवर, और प्रह्लाद को युद्ध में मारकर मैं देवराज इन्द्र बना हूँ।”[2] युद्ध में पीठ दिखाकर भागने वालों को मारना नहीं चाहिए। शूर की भुजाओं में यह लोक पुत्र के समान लटका हुआ है। तीनों लोकों में शौर्य से बढ़कर कुछ नहीं है। शूर सबका पालन करता है और उसी में सब कुछ प्रतिष्ठित है। इस प्रकार विजिगीषु राजा का शौर्य प्रशंसनीय होता है।[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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