श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी18. विश्वरूप का गृह-त्याग
विश्वरूप निर्द्वन्द्व हो चुके थे। वे गीले ही वस्त्रों से आगे बढ़े चले गये। इसके पश्चात् विश्वरूप जी का कोई निश्चित वृत्तान्त नहीं मिलता। पीछे से यही पता चला कि इन्होंने किसी अरण्य नामक संन्यासी से संन्यास ग्रहण कर लिया और इनके संन्यास का नाम हुआ शंकरारण्य। इनके संन्यासी हो जाने पर लोकनाथ ने इनसे संन्यास लिया। दो वर्षों तक ये भारत के अनेक तीर्थों में भ्रमण करते रहे। अन्त में महाराष्ट्र के परम प्रसिद्ध तीर्थ पण्ढरपुर में इन्होंने श्रीविट्ठलनाथ जी के क्षेत्र में अपना यह पांच भौतिक शरीर त्याग कर दिया। देहत्याग के पूर्व इन्होंने अपना स्वकीय तेज श्रीमन्माधवेन्द्रपुरी के आश्रम में उनके परम प्रिय शिष्य श्रीईश्वरपुरी को प्रदान कर दिया था। उन्हीं से वह तेज नित्यानन्द के पास आया। इसीलिये नित्यानन्द को बलराम या शेषनाग को अवतार मानते हैं। इस प्रसंग को पाठक आगे समझेंगे। इधर प्रातःकाल हुआ। मिश्र जी ने देखा विश्वरूप शय्या पर नहीं है। इतने सबेरे पिता से पहले वे उठकर कहीं नहीं जाते थे। पिता को एकदम शंका हो गयी। उन्होंने शय्या के समीप जाकर देखा। पहले तो सोचा गंगास्नान के लिये चला गया होगा, किन्तु जलपात्र और धोती तो ज्यों-की-त्यों रखी है। थोड़ी देर तक वे चुप रहे, फिर उनसे नहीं रहा गया, उन्होंने यह बात शचीदेवी से कही। शचीदेवी भी सोच में पड़ गयी। निमाई भी उठ बैठा। शचीदेवी ने कहा- ‘बेलपोखरा (शचीदेवी के पिता नीलाम्बर चक्रवर्ती का घर बेलपोखरा मुहल्ले में ही था, विश्वरूप लोकनाथ से शास्त्रविचार करने बहुधा वहीं चले जाते थे) लोकनाथ के पास चला गया हो।’ मिश्रजी जल्दी से चक्रवर्ती महाशय के घर गये। वहाँ जाकर देखा कि लोकनाथ भी नहीं है। सभी समझ गये। दोनों परिवार के लोग शोकसागर में मग्न हो गये। शचीदेवी दौड़ी-दौड़ी अद्वैताचार्य के यहाँ गयी। वहाँ भी विश्वरूप का कुछ पता नहीं था। क्षणभर में यह बात सर्वत्र फैल गयी कि विश्वरूप घर छोड़कर चले गये। चारों ओर से मिश्र जी के स्नेही उनके घर आने लगे। लोगों की भीड़ लग गयी। अद्वैताचार्य भी अपने शिष्यों के साथ वहाँ आ गये। सभी भाँति-भाँति की कल्पनाएँ करने लगे। कुछ भक्त कहने लगे- ‘अब घोर कलियुग आ गया। साधु-ब्राह्मणों का मान नहीं, वैष्णवों को सर्वत्र अपमानित होना पड़ता है, धर्म-कर्म सभी लोप हो गये। अब यह संसार भले आदमियों के रहने योग्य नहीं रहा। हमें भी सर्वस्व छोड़कर विश्व के ही मार्ग का अनुसरण करना चाहिये।’ कुछ कहते- ‘भाई! विश्वरूप को हम इतना निष्ठुर नहीं समझते थे, उसने अपने छोटे भाई का भी तनिक मोह नहीं किया।’ |