श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी18. विश्वरूप का गृह-त्याग
मनुष्य इस जीवन-रक्षा के ही लिये साहस के काम करने से डरा करता है। जिसने जीवन की उपेक्षा कर दी है, जिसने अपने शीश को उतारकर हथेली पर रख लिया है, वह संसार में जो भी चाहे कर सकता है, उसके लिये कोई काम कठिन नहीं। ’असम्भव’ तो उसके शब्द-कोष में रहता ही नहीं। ये दोनों युवक भी भगवान का नाम लेकर पतितपावनी कलिमलहारिणी भगवती भागीरथी की गोद में बिना शंका के कूद पड़े। मानो आज वे जलती हुई भव-दावाग्नि से निकलकर जगज्जननी माँ जाह्नवी की सुशीतल क्रोड में शाश्वत शान्ति के निमित्त सदा के लिये प्रवेश करते हों। गंगा जी के किनारे रहने वाले छोटे-छोटे बच्चे भी खूब तैरना जानते हैं, फिर ये तो युवक थे और तैरने में प्रवीण थे, सामान इन लोगों के पास कुछ था ही नहीं, इसलिये ये निर्विघ्न गंगा पार हो गये। जाड़े का समय था, शरीर के सभी वस्त्र भीग गये थे, किन्तु इन्हें इस बात का ध्यान ही नहीं था। शीतोष्णादि द्वन्द्व तो तभी तक बाधा पहुँचा सकते हैं जब तक कि शरीर में ममत्व होता है। शरीर से ममत्व कम हो जाने पर मनुष्य द्वन्द्वों की वेदना से ऊँचा उठ जाता है, तभी वह निर्द्वन्द्व हो सकता है। |