श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी129. विष्णुप्रिया जी को संन्यासी स्वामी के दर्शन
विष्णुप्रिया जी ने फिर कहा- 'प्रभो! सुना है, आप जगत का उद्धार करते हैं, फिर अभागिनी विष्णुप्रिया को जगत से बाहर क्यों निकाल दिया गया हैं, इस के उद्धार की बारी क्यों नहीं आती?' प्रभु ने कहा-'तुम्हारी क्या अभिलाषा है?' सुबकियाँ भरते हुए ठहर-ठहरकर विष्णुप्रिया जी ने कहा- 'मुझे जीवन-यापन कर ने के लिये कुछ आधार मिलना चाहिये। आपके चरणों में यह कंगालिनी भिखारिणी उसी की भीख मांगती है।' थोड़ी देर सोचकर प्रभु ने अपने पैरों के दोनों खड़ाउओं को उतारते हुए कहा- 'देवि! हम संन्यासियों के पास तुम्हें देने के लिये और है ही क्या? यह लो तुम इन पादुकाओं के ही सहारे अपने जीवन को बिताओ।' इतने सुनते ही विष्णुप्रिया जी ने धूलि में सने हुए अप ने मस्तक को ऊपर उठाया और कांपती हुई उँगलियों से उन दोनों खड़ाउओं को सिर पर चढ़ाकर वे रुदन कर ने लगीं। उस समय जनसमूह में हाहाकर मच गया, सभी चीत्कार मारकर रुदन कर ने लगें। प्रभु उसी समय माता को प्रणाम कर के लौट पड़े। माता अपने प्यारे पुत्र को जाते देखकर मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी, प्रभु पीछे की ओर बिना देखे हुए ही जल्दी से भीड़ को चीरते हुए आगे को चल ने लगे। बहुत- से भक्त जल्दी से आगे चलकर लोगों को हटा ने लगे। इस प्रकार थोड़ी देर ही नवद्वीप में ठहरकर प्रभु नाव से उस पार पहुँच गये और वृन्दावन जाने की इच्छा से गंगा जी के किनारे-किनारे ही आगे की ओर चलने लगे। सैकड़ों मनुष्य घर-बार की कुछ भी परवा न कर के उसी समय प्रभु के साथ-ही-साथ वृन्दावन जा ने की इच्छा से उन के पीछे-पीछे चलने लगे। इस प्रकार तुमुल-हरिध्वनि करते हुए सागर के समान वह अपार भीड़ प्रभु के पथ का अनुसरण करने लगी। |